मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

आतंकवादी से खेलेंगे बच्चे

बच्चे पूछ रहे हैं आतंकवादी का घर
बच्चे जा रहे हैं आतंकवादी के घर
बच्चे मिलेंगे आतंकवादी से

ऐसा कुछ नहीं करेंगे बच्चे
जिससे आतंकवादी डर जायें
या कि डर से भर जायें
बच्चे चाहते हैं कि आतंकवादी सिहर जायें

बच्चे मिलने चले हैं खाली हाथ

बच्चे पूछेंगे-
तुम में से हीमैन कौन है
तुम मे सुपर मैन कौन है
और कहाँ रहता है भयानक ड्रेकुला

बच्चे बदल देंगे कॉमिक्स का झूठ

बच्चे देखना चाहेंगे
आतंकवादी के घर का पिछला दरवाजा
बच्चे खोलना चाहेंगे
आतंकवादी के तमंचे की नली
बच्चे होना चाहेंगे
आतंकवादी के साथ
थोड़ा आतंकवादी
आतंकवादी से खेलेंगे बच्चे
कोई खुराफात

पीछे फैंक आए हैं कॉमिक्स
खिलोने तोड़ आए हैं बच्चे
बच्चे लौटेंगे फेंटम की सी कोई कहानी बनाकर

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

अकेलेपन को बांटता हुआ मिलूँगा

मंद मंद बह रही इस हवा का
कोई अतीत तुम्हें याद है
जिसके स्पर्श से छत पर अकेले बैठे
एक आदमी ने गुनगुनाते हुए
मीलों लंबा पत्र लिखा था

दुनिया की सबसे पवित्र नदी में स्नान करने के बाद
जिसने एक रंग मलना शुरू किया
और रंग धुलने के लिए एक बारिश का इंतजार करता रहा

जिसके बारे में तुमने कहा था
त्वचा के आवरण में वह कितनी ही दीवार खड़ी कर ले
मैं उसके अंदर के आदमी को हाथ पकड़कर बाहर निकाल सकती हूं

कभी सौ बार थपकी देकर सुलाया गया था उसे
और एक बार बिना थपकी लिए वह तुम्हारी
थकान में गुम हो गया था

जब सभी छतें खाली हो गयी
उसके मरने के बाद
वह बादलों को भीगता हुआ मिला था
उसी छत पर अपने अकेलेपन को बांटता हुआ

रविवार, 16 नवंबर 2008

मंदी के भूत

धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी गरीबी
पैसा कमाने के सपने तो होंगे पर जरूरत नहीं होगी
जरूरत पूरी करने की चुभन तो होगी पर एहसास मर जाएगा
न्यूज प्रिंटर की तरह धड़ाधड़ बाहर आएंगी जरूरतें
चिल्लाएंगी हंगामा करेंगी पर अधूरी जरूरतें
पूरी होने वाली जरूरतों का घोंट देंगी गला
सुबह का अखबार कौन पढ़ना चाहेगा
अल्सुबह काम पर जाना होगी सबसे बड़ी जरूरत
तब रात में निकलने शुरू होंगे अखबार या तब
जब कोई उन्हें पढ़ने की जरूरत जताएगा
दिन भर बिना कमाये लौटेगा आदमी
रात में काम पर जाएंगी औरतें, लगी रहेंगी काम में
यक्ष प्रश्न बार-बार परीक्षा लेगा उनकी
किसका बिस्तर गर्म करें कितनों का बिस्तर गर्म करें
कि गरम हो सके सुबह का चूल्हा
बिस्तर गरम कराने वाले छोड़ चुके होंगे शहर
शहर के अस्पताल भरे होंगे उनसे
हाहाकार मचा होगा अस्पतालों में-
ऊं जूं सः मा पालय, ऊं जूं सः मा पालय पालय।
बच्चे निकलेंगे पूरा परिवार संगठित होकर
कमाएगा और पाएगा फूटी कौड़ी
तब जागेगा प्यार आर्थिक अभाव में
प्यार भूख में होगा पर भूख न लगेगी
बाजारवाद की व्याख्या करके
विजयी भाव से भर जाएगा प्यार
इतिहासकारों का शरीर फट चुका होगा
अर्थशास्त्रियों के भेजे में हो जाएगा कैंसर या मधुमेह से
मारे जा चुके होंगे सब के सब
जनता का आदर्श हो जाएगा आर्थिक अभाव
पूंजी का कोई अर्थ न रह जाएगा
जो पूंजी वाला होगा, वही सबसे गरीब होगा
पैसे वाला पैसे वाले से दूर भागेगा
जो जितना अमीर होगा उतना अश्पृश्य हो जाएगा
जो जितना गरीब होगा उतना अपना होगा
पूंजी के साथ आने वाले मर्ज उड़न छू हो चुके होंगे

मुझे भूतों की दुनिया दिखती है

उस दुनिया में मारामारी नहीं है
आदमी भड़ुआ नहीं है औरत बाजारी नहीं है
बच्चों के आगे बड़ा होने की लाचारी नहीं है
बड़ी हो रही है भूतों की दुनिया
समय के सहवास में हुए स्खलन से हो रहा है उसका जनम
किसी पल कबीर की उलटबांसियों की तरह
सामने आकर खड़ी हो सकती है भूतों की दुनिया
उनकी आंखों में लाल डोरे फैलने लगे हैं
जाप चल रहा है चल रहा है और तेज हो रहा है
तीव्रतम हो रहे हैं उनके स्वर-
परित्राणाय साधुनाम......

भूतों की हथियार मंद दुनिया से
हमले का अंदेशा लगता है

रविवार, 9 नवंबर 2008

खो रहा हूं मैं

कुछ पाया मैंने और खो भी दिया
जिया भोगा चखा-एक एहसास पाला
उसे नाम दिया-प्रेम
ऐसे ही कि जहां से आया हूं लौटना है
उठा हूं डूबना है, सिमेटा है उसे-बिखेरना है
उसे नाम दिया परमात्मा
तब तुमसे अवांछित शिकायतें कैसी
नियम-रीति मुंह फाड़े चिल्ला रहे हैं-
पाये को लौटाना है प्रतिपल प्रतिरूप प्रतिबिम्ब
पर जीवन का वास्ता है-लौटाना है।
चांद बुलाता है तारे बुलाते हैं सीमाएं बुलाती हैं
चोटिया बुलाती हैं गहराइयां भी बुला ही लेती हैं आदमी को
और तुमने बुलाया उसी अंदाज में मुझे
सबसे निकट अपने। फिर भुला दिया सोचना
मुझे या कि मेरे लिए तुम बुलाने लगे-दूर को
चांद को तारों को कंचनजंगा को प्रशांत को
तुम कहती हो-कोई निमंत्रण देता है।
जबकि सुंदरता दूर की वस्तु है
मैं जो स्वयं में हूं-तुम, तुम्हारे स्मरण में नहीं आता
तो जो है तुम्हारे भीतर पुकार वहां की
चली गयी है निविड अंधेरे में, इच्छाओं के अतल में
जबकि तुम्हारा तल मेरे भीतर है
और क्या मिट सकता हूं मैं जो कि अनंत है
शाश्वत है प्रेम-परमात्मा
सागर मिटा है लहर के बिना जबकि लहर उठी है
खेली है-वक्ष पर उसके
और फिर रूठ भी गयी
जबकि आंधियां तूफान उठे हैं हवाओं में और बिखर भी गए

ग्रह नक्षत्रों की जो सत्ता मैंने जीत ली थी
आज तुम्हारी वजह से लौटाने जा रहा हूं.....

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

मैं कौन सा दीप जलाऊं?

मैं कौन सा दीप जलाऊ? अब से ठीक बीस घंटे बाद दीपावली के दीप घर-घर, गली-चौराहे जलने शुरू होंगे, मगर मैं दुविधा में हूं कि मैं कौन सा दीप जलाऊं? जलते हुए दीप अपने हिस्से का अंधियारा दूर करेंगे, पर क्या मेरे जलाए दीप मेरे हिस्से का अंधियारा दूर कर सकेंगे। मैं कौन सा दीप जलाऊं?-उस नौजवान की आत्मा की शांति के लिए कोई दीप जलाऊं, जिसके कोमल मन में राजनीति के अंधियारे ने ऐसा हिस्टारिया दिया कि वह अपना आपा खो बैठा और उस आदमी से बात करने के लिए बेकाबू हो गया, जो उसके लिए जिम्मेदार था। जो दो दिन पहले ही मुंबई पहुंचा था अपना कैरियर बनाने। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ उसके साथ कि मुंबई की चकाचौंध में वह अपने अस्तित्व को बिसरा चुका हो और बार-बार वही सवाल उसके दिमाग में कौंधने लगा हो, जो वहां से पिटकर लौटे दूसरे भाइयों के मन में कौंध रहा है।
क्या मैं उस आदमी के नाम पर भी दीप जला सकता हूं, जो वास्तव में अपने अस्तित्व और अपने भविष्य के अंधियारे को दूर करने के लिए मराठियों के बहाने पूरे देश में अंधियारा पैदा करना चाहता है। लोहे को लोहे से काटने की कहावत पर चलकर जो अंधियारे से अंधियारे को हराना चाहता है। या में बाजार के उस महानायक के नाम का दीप जलाऊं, जो गंगा-जमुनी भावनाओं के उद्वेग पर सवार होकर महानायक बना और हिंदी बोलने की शर्म में हिंदी की छाती पर खड़ी होकर माफी मांग गया। महानायक भी मुंबई में अपने अस्तित्व पर संकट देख रहा है, तो मैं उसके अस्तित्व की अक्षुण्ता की कामना में एक और दीप जलाऊं?
मुंबई शहर पर एक परिवार के दो महत्वाकांक्षी लोगों में से किसी एक की हुकूमत कायम रहने की जद्दोजहद से बुझ रहे दीपों में से मैं किसका दीप जलाऊं? या बेबड़ा मारकर सो गए उन लोगों के लिए दीप जलाऊं, जो अपने महानायक की तलाश में उनके झंडे के साथ अपने अस्तित्व के भ्रम को पाले हुए हैं और अभी भी सो रहे हैं। जो सो रहे हैं और सोते-सोते भयभीत हैं कि उनकी जमीन पर यूपी-बिहार के भइये क्यों इतने जाग्रत रहते हैं।
मैं बाटला हाउस की अतृप्त आत्माओं की शांति को एक दीप अवश्य जलाता, मगर अब मैं एक साध्वी के बहाने उस राजनीति का अंधियारा दूर करने के लिए कोई दीप क्यों न जलाऊं, जो मात्र अपने ओजस्वी भाषण की वजह से आज की राजनीति का साफ्ट टारगेट बन गयी, जिसके बहाने से मुस्लिम आतंकवाद बनाम हिंदू आतंकवाद की नई थ्यौरी गढ़ने की प्यास जाने कब से विकल कर रही थी।
आय के मामले में मंदी और व्यय के मामले में मंहगाई वाले इन दिनों में आखिर कोई कितने दीप जला सकता है और सावन हरे न भादों सूखे वाले मंहगे साक्षी भाव में मैं आखिर कितने दीप जला पाऊंगा। घी-तेल या मोम, चीनी, मिट्टी या चांदी के दीपों में से कौन सा दीपक पटना से लेकर मुंबई और बाटला से लेकर नंदीग्राम तक के अंधेरे को दूर कर सकेगा, कोई पहचान कर बता दे,मैं वही दीप जला लूंगा।

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

सुशील प्रकरण : वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन

सुशील प्रकरण : वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन
Written by B4M Reporter
Friday, 24 October 2008 01:30

एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के इशारे पर वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाने और पुलिस द्वारा परेशान किए जाने के खिलाफ वेब मीडिया से जुड़े लोगों ने दिल्ली में एक आपात बैठक की। इस बैठक में हिंदी के कई वेब संपादक-संचालक, वेब पत्रकार, ब्लाग माडरेटर और सोशल-पोलिटिकिल एक्टीविस्ट मौजूद थे। अध्यक्षता मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने की। संचालन विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने किया। बैठक के अंत में सर्वसम्मति से तीन सूत्रीय प्रस्ताव पारित किया गया। पहले प्रस्ताव में एचटी मीडिया के कुछ लोगों और पुलिस की मिलीभगत से वरिष्ठ पत्रकार सुशील को इरादतन परेशान करने के खिलाफ आंदोलन के लिए वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन किया गया।

इस समिति का संयोजक मशहूर पत्रकार आलोक तोमर को बनाया गया। समिति के सदस्यों में बिच्छू डाट काम के संपादक अवधेश बजाज, प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेंदु दाधीच, गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा, तीसरा स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रीय संगठक गोपाल राय, विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी, लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार, मीडिया खबर डाट काम के संपादक पुष्कर पुष्प, भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह शामिल हैं। यह समिति एचटी मीडिया और पुलिस के सांठगांठ से सुशील कुमार सिंह को परेशान किए जाने के खिलाफ संघर्ष करेगी। समिति ने संघर्ष के लिए हर तरह का विकल्प खुला रखा है।

दूसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को परेशान करने के खिलाफ संघर्ष समिति का प्रतिनिधिमंडल अपनी बात ज्ञापन के जरिए एचटी मीडिया समूह चेयरपर्सन शोभना भरतिया तक पहुंचाएगा। शोभना भरतिया के यहां से अगर न्याय नहीं मिलता है तो दूसरे चरण में प्रतिनिधिमंडल गृहमंत्री शिवराज पाटिल और उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से मिलकर पूरे प्रकरण से अवगत कराते हुए वरिष्ठ पत्रकार को फंसाने की साजिश का भंडाफोड़ करेगा। तीसरे प्रस्ताव में कहा गया है कि सभी पत्रकार संगठनों से इस मामले में हस्तक्षेप करने के लिए संपर्क किया जाएगा और एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के खिलाफ सीधी कार्यवाही की जाएगी।

बैठक में प्रभासाक्षी डाट काम के समूह संपादक बालेन्दु दाधीच का मानना था कि मीडिया संस्थानों में डेडलाइन के दबाव में संपादकीय गलतियां होना एक आम बात है। उन्हें प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए जाने की जरूरत नहीं है। बीबीसी, सीएनएन और ब्लूमबर्ग जैसे संस्थानों में भी हाल ही में बड़ी गलतियां हुई हैं। यदि किसी ब्लॉग या वेबसाइट पर उन्हें उजागर किया जाता है तो उसे स्पोर्ट्समैन स्पिरिट के साथ लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि संबंधित वेब मीडिया संस्थान के पास अपनी खबर को प्रकाशित करने का पुख्ता आधार है और समाचार के प्रकाशन के पीछे कोई दुराग्रह नहीं है तो इसमें पुलिस के हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं है। उन्होंने संबंधित प्रकाशन संस्थान से इस मामले को तूल न देने और अभिव्यक्ति के अधिकार का सम्मान करने की अपील की।

भड़ास4मीडिया डाट काम के संपादक यशवंत सिंह ने कहा कि अब समय आ गया है जब वेब माध्यमों से जुड़े लोग अपना एक संगठन बनाएं। तभी इस तरह के अलोकतांत्रिक हमलों का मुकाबला किया जा सकता है। यह किसी सुशील कुमार का मामला नहीं बल्कि यह मीडिया की आजादी पर मीडिया मठाधीशों द्वारा किए गए हमले का मामला है। ये हमले भविष्य में और बढ़ेंगे।

विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने कहा- ''पहली बार वेब मीडिया प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों मीडिया माध्यमों पर आलोचक की भूमिका में काम कर रहा है। इसके दूरगामी और सार्थक परिणाम निकलेंगे। इस आलोचना को स्वीकार करने की बजाय वेब माध्यमों पर इस तरह से हमला बोलना मीडिया समूहों की कुत्सित मानसिकता को उजागर करता है। उनका यह दावा भी झूठ हो जाता है कि वे अपनी आलोचना सुनने के लिए तैयार हैं।''

लखनऊ से फोन पर वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार ने कहा कि उत्तर प्रदेश में कई पत्रकार पुलिस के निशाने पर आ चुके हैं। लखीमपुर में पत्रकार समीउद्दीन नीलू के खिलाफ तत्कालीन एसपी ने न सिर्फ फर्जी मामला दर्ज कराया बल्कि वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत उसे गिरफ्तार भी करवा दिया। इस मुद्दे को लेकर मानवाधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश पुलिस को आड़े हाथों लिया था। इसके अलावा मुजफ्फरनगर में वरिष्ठ पत्रकार मेहरूद्दीन खान भी साजिश के चलते जेल भेज दिए गए थे। यह मामला जब संसद में उठा तो शासन-प्रशासन की नींद खुली। वेबसाइट के गपशप जैसे कालम को लेकर अब सुशील कुमार सिंह के खिलाफ शिकायत दर्ज कराना दुर्भाग्यपूर्ण है। यह बात अलग है कि पूरे मामले में किसी का भी कहीं जिक्र नहीं किया गया है।

बिच्छू डाट के संपादक अवधेश बजाज ने भोपाल से और गुजरात ग्लोबल डाट काम के संपादक योगेश शर्मा ने अहमदाबाद से फोन पर मीटिंग में लिए गए फैसलों पर सहमति जताई। इन दोनों वरिष्ठ पत्रकारों ने सुशील कुमार सिंह को फंसाने की साजिश की निंदा की और इस साजिश को रचने वालों को बेनकाब करने की मांग की।

बैठक के अंत में मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि सुशील कुमार सिंह को परेशान करके वेब माध्यमों से जुड़े पत्रकारों को आतंकित करने की साजिश सफल नहीं होने दी जाएगी। इस लड़ाई को अंत तक लड़ा जाएगा। जो लोग साजिशें कर रहे हैं, उनके चेहरे पर पड़े नकाब को हटाने का काम और तेज किया जाएगा क्योंकि उन्हें ये लगता है कि वे पुलिस और सत्ता के सहारे सच कहने वाले पत्रकारों को धमका लेंगे तो उनकी बड़ी भूल है। हर दौर में सच कहने वाले परेशान किए जाते रहे हैं और आज दुर्भाग्य से सच कहने वालों का गला मीडिया से जुड़े लोग ही दबोच रहे हैं। ये वो लोग हैं जो मीडिया में रहते हुए बजाय पत्रकारीय नैतिकता को मानने के, पत्रकारिता के नाम पर कई तरह के धंधे कर रहे हैं। ऐसे धंधेबाजों को अपनी हकीकत का खुलासा होने का डर सता रहा है। पर उन्हें यह नहीं पता कि वे कलम को रोकने की जितनी भी कोशिशें करेंगे, कलम में स्याही उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाएगी। सुशील कुमार प्रकरण के बहाने वेब माध्यमों के पत्रकारों में एकजुटता के लिए आई चेतना को सकारात्मक बताते हुए आलोक तोमर ने इस मुहिम को आगे बढ़ाने पर जोर दिया।

बैठक में हिंदी ब्लागों के कई संचालक और मीडिया में कार्यरत पत्रकार साथी मौजूद थे।

साभार-भड़ास

भीग रहा है वह

मंद मंद बह रही इस हवा का
कोई अतीत तुम्हें याद है
जिसके स्पर्श से छत पर अकेले बैठे
एक आदमी ने गुनगुनाते हुए
मीलों लंबा पत्र लिखा था

दुनिया की सबसे पवित्र नदी में स्नान करने के बाद
जिसने एक रंग मलना शुरू किया
और रंग धुलने के लिए एक बारिश का इंतजार करता रहा

जिसके बारे में तुमने कहा था
त्वचा के आवरण में वह कितनी ही दीवार खड़ी कर ले
मैं उसके अंदर के आदमी को हाथ पकड़कर बाहर निकाल सकती हूं

कभी सौ बार थपकी देकर सुलाया गया था उसे
और एक बार बिना थपकी लिए वह तुम्हारी
थकान में गुम हो गया था

जब सभी छतें खाली हो गयी
उसके मरने के बाद
वह बादलों को भीगता हुआ मिला था
उसी छत पर अपने अकेलेपन को बांटता हुआ

रविवार, 19 अक्तूबर 2008

ईश्वर को समझने में

देवताओं ने पहले ईश्वर को ढूंढा
या ईश्वर ने देवताओं को
आदमी की समझ में यह कभी नहीं आया
या दोनों ने मिलकर आदमी को ढूंढा
आदमी यह भी पता नहीं लगा पाया
और ईश्वर को ढूंढने में लगा रहा।

देवताओं को आदमी की जरूरत ज्यादा है
या ईश्वर को या फिर दोनों को
आदमी के लिए यह परीक्षण पाप बराबर रहा
और उसने अपनी जरूरत बना लिए देवता और ईश्वर।

नाती-पोतों ने आदमी को खूब समझाया
खूब तर्क दिए पर सिरफिरा आदमी ढूंढता रहा ईश्वर
और पीढ़ियां होती चली गयीं अभिशप्त।

तिराहे-चौराहे मुस्कराता हुआ
खड़ा मिलता है ईश्वर
आदमी रोते हुओं की पहचान
करने में होता रहता है खुश
हमेशा से ईश्वर गले लगा रहा है
हंसते हुए आदमी को और
रोते हुए उसके दरबार के बाहर
जाने कब से खड़े हैं लाइन में।

पंक्तिबद्ध लोग लामबंद होना चाहते हैं
पम्फलेट बंटवाना चाहते हैं-
ईश्वर को समझने में गलती मत करिए
ईश्वर को जरूरत है आदमी की, पर हंसते हुए आदमी की

पुरखों ने कैसी गलतियां की हैं
ईश्वर को समझने में।।

तुम्हारी उड़ान का पंख

मैं मिलूंगा
भीड़ में फीके, रंग उड़े
और रंग-बिरंगे चेहरों के बीच
पहचान वाली पगडंडियों पर

मैं जहां भी हूं, दूर तुमसे, दूर सबसे
दूर अपने को छिपा रखने के कई रोगों से
मैं जा रहा हूं पानी की शक्ल में
बुलबुला होता हुआ
हवा के आकार में बनता-बिगड़ता
पर मिलूंगा पानी से बाष्प होने के मध्य

धड़कनें गिनता हुआ मैं मिलूंगा
कुछ भी अशेष गुनगुनाता हुआ
धूप की तरह
किसी को भी उसकी पहचान कराता हुआ
जहां कहीं भी रहूंगा मैं
रहूंगा तुम्हारी उड़ान में पंख लगाता हुआ

स्मृतियों के धुंधलके में
तुम्हारी आवाज को सुनाता
फेरी वाले की जगह
गली-गली, चाहें रहूं किसी भी वेश-भाषा में
पर मिलूंगा तुम्हारे ही कारणों में।।
(1988)

रविवार, 12 अक्तूबर 2008

बस चले तो पानी के दीये जला लें

यदि दीये पानी से जल सकते तो दीपावली पर इस बार लोग जरूर घी-तेल के दीये जलाने से परहेज कर सकते थे और अगर मिठाइयां शक्कर की जगह गुड़ से बनतीं तो वह निश्चित ही आज के अपने भावों से ज्यादा मंहगी मिलतीं। शेयर बाजार के डूबने से अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है तो जरूर दीपावली तक कइयों के आशियाने उड़ने वाले हैं।
वित्त मंत्री मानें न मानें पर बाजार से तरलता गायब है और हर खास ओ आम को अपने सपने तोड़ने के लिए कठोर फैसले करने पड़ रहे हैं। सेक्टर कोई हो, सन्नाटा हर ओर पसरा हुआ है। श्राद्ध पक्ष के बाद उठने वाले बाजार नवरात्रि बीत जाने के बाद भी दोहरी कमर के दर्द को सहला रहे हैं। आलम यह है कि गाय का शुद्ध घी पांच सौ रुपए किलो तक में नहीं मिल रहा, डेयरी का घी अमूल के डिब्बा बंद से ज्यादा मंहगा है। चीनी बीस रुपए किलो मिल रही है तो गुड़ ने सीजन शुरू होने से पहले अपनी औकात बढ़ा ली है। यह 22 रुपए किलो बिक रहा है।
सब्जियां इतनी मंहगी हैं कि एक किलो भिंडी से किसी ब्लू चिप कंपनी का एक शेयर खरीदा जा सकता है और एक किलो आलू की कीमत में स्माल कैप की कई कंपनियों के शेयर हासिल किए जा सकते हैं। अठारह साल पहले मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री की हैसियत से जिस पूंजीवाद को स्थापित किया था, आज उनके प्रधानमंत्रित्व काल के अंतिम महीनों में न केवल वह दम तोड़ रहा है, बल्कि मथुरा जैसे जनपद में भी आम आदमी इस आदमखोर अर्थव्यवस्था का आए दिन शिकार बन रहा है।
हालात वर्ष 90 के दीपावली पहले जैसे हैं। तब भी बाजारों के सन्नाटे खबर बनते थे, लेकिन तब मंदड़ियों का राज था, सरकार ने उससे निबटने को कई कदम उठाए थे और रुपए के प्रचलन पर जोर दिया था। आज रुपया इतना सर्कुलेशन में है कि बाजार से तरलता गायब है, बैंकों में पेमेंट का संकट है। नकली नोट बाजार में हों न हों, पर बैंकों के कैश काउंटर और एटीएम से धड़ाधड़ बाहर आ रहे हैं। कोई दिन शायद ही ऐसा जाता हो, जब मथुरा की किसी न किसी बैंक में किसी की गड्डी में कोई नकली नोट न निकलता हो।
कालोनाइजर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं तो दीपावली की पूर्व संध्या पर उनके फ्लैट और प्लाट की बुकिंग न के बराबर है। थोक में गिफ्ट बांटने वाले सस्ते सौदे के लिए दिल्ली तक की दौड़ लगा रहे हैं। बड़े दुकानदार काला बाजारी से नहीं चूक रहे तो बाट-माप विभाग ने सात सौ से लेकर बारह सौ रुपए तक बांट चेक करने का अभियान चलाया हुआ है। रेडीमेड गारमेंट की दुकानों से ज्यादा शहर का मंगल बाजार लोकप्रिय हो रहा है।
कर्मचारियों के हवाले दीवाली----------------------
दीपावली इस बार काली होने के कारणों में एक कारण और भारी पड़ सकता है, वह है वेतन भुगतान। दीवाली इस बार महीने के अंत में पड़ रही है, यानि 28 अक्टूबर को। वेतन कर्मियों के विभाग और हम जैसे कर्मचारियों के मालिक दीपावली से पहले वेतन दे पाएंगे, यह तो अभी तय नहीं है, पर कर्मचारियों के सितंबर माह का वेतन इस महीने के पहले पखवाड़े में ही स्वाहा हो चुका है, जाहिर है बाजार में खरीददारी इसलिए भी नगण्य है।
चतुर्वेदी परिवारों में डालर स्माइल
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बाजार का आसर सकारात्मक भी हो सकता है। रुपए में पच्चीस फीसदी तक की गिरावट से स्थानीय चतु्र्वेदी समाज के सैकड़ों परिवारों में दीपावली पर डालर की चमक नजर आ रही है। एक अनुमान के मुताबिक स्थानीय इस समाज के करीब हजार-आठ सौ लोग दुबई और यूएई में काम कर रहे हैं। पिछली दीपावली पर डालर की कीमत गिरने पर उनकी कमाई सिकुड़ने लगी थी, लेकिन अब रुपए के मुकाबले डालर 49 रुपए के आसपास पहुंचने के साथ ही उनके परिजनों के चेहरे खिलने लगे हैं। दुबई से यहां अपने परिवारों में पैसे भेजने का उत्साह भी बढ़ा हुआ है।
हाय, इस सप्ताह क्या होगा--------------------

शेयर बाजार लगातार नीचे आ रहा है। अमेरिका का सब प्राइम संकट एक निजी बैंक को भी प्रभावित कर गया है। ऐसी अफवाह ने बैंक में सावधि जमा करने वालों का भी दम निकाल रखा है। उक्त बैंक ने छोटे लोन देना तो एक महीने से बंद कर रखा है, अब इन हाउस पेमेंट रुके हुए हैं और एफडी के पेमेंट भी सही सलामत नहीं हो पा रहे। कहते हैं कि इस बैंक का चालीस फीसदी पैसा अमेरिका में निवेशित होने से इसे भारी घाटा हुआ है। तो क्या केंद्रीय सरकार, वित्त मंत्री और रिजर्व बैंक निवेशकों को जो ढांढस बंधा रहे हैं, वह दिखावा है। सच कुछ भी हो, कहा जा रहा है कि अगर यह बैंक दिवालिया हो गया है तो इस सप्ताह सेंसेक्स आठ हजारी भी हो सकता है औऱ तब निफ्टी 2100 के पास आएगी और शेयर निवेशकों के साथ-साथ आम आदमी की दीपावली भी काली होगी। कहीं ऐसा न हो कि रविवार तक मेगा स्टार अमिताभ बच्चन की सेहत की दुआ कर रहे लोगों को अर्थव्यवस्था के लिए दुआ करनी पड़ जाए।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

मैं हूं तुम हो और ये चांदनी....

सुहाग रात के तोहफे में आप अपनी पत्नी को क्या दे सकते हैं। कुछ भी। हर वो चीज जो पैसे से खरीदी जा सकती है, लेकिन मैंने एक ऐसा तोहफा अपनी पत्नी को दिया, जो पैसे से नहीं खरीदा जा सकता था। अभी रात के एक बजकर 47 मिनट हुए हैं। नेट पर काम करते-करते आंख दुखने लगीं तो मैं छत पर चला गया। धवल चांदनी रात शरद ऋतु की और मेरे कमरे की छत उतनी ही सद्द स्नग्धि, जितनी कि तब थी। मैं मुंडगेली से बाहर की तरफ झांका कि देखूं दिन भर फांय-फांय करने वाला और गला काटकर पैसा कमाने वाला आदमी क्या किसी नई विधि से नींद लेता है। सब निढाल पड़े थे और बेसुध थे। कल्लू जग रहा था, वह मुझे देखते ही बोला-आधी रात को जाग रहे हैं साहब। मैंने कहा-अबे तू क्यों जग रहा है। बोला-आज मेरी शादी की सालगिरह की रात है। मुझ पर ज्यादा देर तक छत पर रुका नहीं गया। कमरे में आया और डायरी खोली। जो तोहफा मैंने दिया था, आज उसे सार्वजनिक कर रहा हूं। मुझे लगता है कल्लू इस एहसास को रात भर जीएगा

दोनों खिड़की से झांक रहा है चांद

मेरे सिर के ऊपर आसमान है
मेरे पैरों तले जमीन है
शेष जो भी है इधर-उधर सब
निरर्थक है..

मेरे हाथों में तुम्हारा चेहरा है
मेरे होठों पर तुम्हारे होंठ
मेरे सीने पर तुम्हारा वक्ष है
गर्म सांस कुछ गुनगुनाना चाह रही हैं
मैं उठा हूं तुम पर
एक पुरातात्विक कृति सा
तुम परियों सी अंगड़ाई में
बहुत कुछ कहने,सुनने,जानने,मचलने
मचलकर जानने और जानकर मचलने को हो रही हो व्याकुल

इसके अलावा शेष जो भी है आगे-पीछे
लोक-परलोक समझने का है, मेरे लिए
निरर्थक है..

मेरी आंखों में सपने हैं
सपनों का घर है
घर में एक थाली दो कटोरियां हैं
जलाने के नाम पर एक बोतल किरोसिन
और स्टोव है
खाने को हरे शाक शुद्ध गेंहू की चपातियां हैं
एक बिस्तर है
दो खिड़कियां हैं
चंदा दोनों खिड़कियों से झांक सकता है
तुम हो, मैं हूं
और अगर कोई आने वाला भी है तो
वह जाने कि उसे आना है भी कि नहीं
इसके अलावा शेष जो भी सोचने का है, मेरे लिए
निरर्थक है..

मैं हूं, तुम हो
तुम हो, मैं हूं
भूखे-प्यासे
सुख हैं दुख हैं हमी हैं
यज्ञ हैं याजक हैं
कृत्य हैं कृतिया हैं हमी हैं
हमी चेतन हैं या कहें तो
हमीं नश्वर हैं
हमीं नूतन हमीं पुरातन
दर्शन हैं परिभाषाएं हैं

कहने को हमारे पास इतने शब्द हैं
जितने आसमान में सितारे
पर हमारे सितारे गर्दिश में हैं
शब्द हमने दूर धकेल दिए हैं-
अनुभूतियों के पिंड में
पिंड में हवा है हवा में योग हैं
यही जीवन है यही भोग है

शेष जो भी है-
सुंदर असुंदर, मेरे लिए
इस समय निरर्थक है..

आसमान में चमकेंगी टिप्पणियां

यह कविता मैंने रवीश कुमार जी के ब्लाग कस्बा पर पढ़ी, तो मुझे लगा कि यह मेरे जैसों के लिए लिखी गयी है, जो दिन भर पैदल चलने के बाद भी मोटू हो रहे हैं। वैसे इसके निहितार्थ मैंने दूसरे भी निकाले और झटपट इस पर कमेंट लिखने बैठ गया। लेकिन यह क्या हुआ, पूरे दिन खबरों की रेलमपेल से भन्नाया हुआ भेजा इस कदर ताजा हुआ कि कमेंट तुकबंदी में चला गया और रवीश जी ने उसे पोस्ट करने की हरी झंडी दे दी। आज एक सप्ताह बाद जब कुछ लिखने का मौका मिला तो उनकी ओरीजनल कविता के साथ अपने तुकबंदी मय कमेंट को यहां पोस्ट करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं। मुझे लगा कि इसे पोस्ट करना चाहिए तो एक अलग कंसेप्ट भी सूझ गया। और वह यह कि क्या यह एक नहीं शुरूआत नही हो सकती है। हम ब्लागिए अपने-अपने ब्लाग जितनी तन्मयता से लिखते और इसे समय देते हैं, उतनी तबज्जो दूसरे ब्लागों को नहीं देते। किसी के भी ब्लाग पर चले जाओ, टिप्पणी से पता चल जाता है कि केवल इसलिए औपचारिकता निभायी गयी है कि दूसरा भी आपके ब्लाग पर आकर एक टिप्पणी दे जाए। जबकि एक विचार को लेकर की जाने वाली टिप्पणियां ब्लाग और समाज में बहस का मंच खड़ा कर सकती हैं और समृद्ध होते इस प्लेटफार्म को न्यूज चैनलों और अखबारों से ज्यादा सार्थक बना सकती हैं। क्या पता किसी दिन विस्तार और आधार पाने के बाद टिप्पणियां साहित्य में जगह बनाने लगें।

तुम बहुत मोटे हो गए हो..व्हाट इज़ रांग विद यू
----------------------------------
इक दिन जब मैं पतला हो जाऊंगा, हवायें ले उड़ेंगी मुझे

बादलों पे मेरा घर होगा, भूख से बिलखते इंसानों की तरह

अंदर धंसा हुआ पेट होगा, गड्ढे हो जायेंगे दोनों गालों में

ग़रीबी रेखा से नीचे के रहने वालों जैसा मेरा स्तर होगा

खाये पीये अघाये लोगों के बीच मैं किसी हीरो की तरह

बड़े आदर के साथ, मचलती नज़रों के बीच बुलाया जाऊंगा

इक जिन जब मैं पतला हो जाऊंगा, हवायें ले उड़ेंगी मुझे
Posted by ravish kumar at Friday, October 03, 2008 7 comments

Pawan Nishant said...

एक दिन जब मैं पतला हो जाऊंगा
खंभे पर लटका मिलूंगा या
तारों पर चल रहा होऊंगा,
प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के जैसी
सड़क की तरह बिछा मिलूंगा अपने गांव में
पर नहीं जाऊंगा दूसरे शहर
सबसे पहले अपने अंदर के आदमी से लड़ूंगा
और दोनों को लड़ते देख सकूंगा साक्षी भाव से
एक दिन जब मैं पतला हो जाऊंगा
पतले आदमी का पसीना
इत्र की तरह खुश्बू बिखराता जाएगा
गांव,मोहल्ला,गली,दिल्ली और कोलकाता तक
और अगले चुनाव में समर्थन देने से पहले
प्रकाश करात को सौ जगह दस्तखत करने पड़ेंगे
पतले आदमी के जिस्म पर
pawan nishant
http://yameradarrlautega.blogspot.com

October 5, 2008 12:49 AM

रविवार, 5 अक्तूबर 2008

ऊंट ऊंटनियों के लिए नहीं होते

ऊंट जैसा कि सब जानते हैं, ऊंटनियों के लिए होते हैं। ऊंट, ऊंटनियों से उतना ही प्यार करते हैं,जितना कि ऊंटनियां उनसे करती हैं। ऊंट पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसकी ऊंटनी वास्तव में उससे कितना प्यार करती है। दोनों वैसे तो रेगिस्तान में ही रहते आए हैं, मगर इस ऊंट ने घर में रहना पसंद किया, सो सबसे पहले उसने घर की छत हटवा दी। ऊंट और छत एक साथ नहीं रह सकते। दोनों में जनम जात का बैर है।
ऊंटनी दिनभर घर के कामकाज निपटाती और ऊंट दिन भर बाहर मुंह मारता फिरता। ऊंट कहां-कहां मुंह मारता, ऊंटनी को यह पता नहीं चल पाता था और उस पर इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता था। उसने क अक्षर से शुरू होने वाले एकता कपूर के सीरियल जो नहीं देखे थे। ऊंट ने घर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की थी, जिससे ऊंटनी का चरित्र खराब हो। ऊंटनी को भी विश्वास था कि ऊंट उसके अलावा और किस पर डोरे डाल सकता था, लेकिन ऊंटनी गलतफहमी में थी।
उसका ऊंट इन दिनों छह साल से चल रहे एक सीरियल में लगभग बुढ़ा गयी हीरोइन से इश्क लड़ा रहा था। हीरोइन अपना शॉट ओके होने के बाद ऊंट पर आकर बैठ जाती और ऊंट उसे स्टुडियो के बाहर-भीतर यह दिखाकर लाता कि एक वही हीरोइन नहीं है, जो इस ऊंट के प्यार में पड़ गयी है, और भी कई एक्ट्रेस हैं, जो ऐसे ही टाइम पास कर रही हैं। ज्यादातर एक्ट्रेस कुत्तों के प्यार में पड़ी हुई थीं और एक बड़ी हीरोइन एक सूअर टाइप आदमी के साथ चिपकी हुई थी। एक नामी एक्ट्रेस एक गधे के इश्क में पड़ चुकी थी और सारे गधे इस बात पर गर्व महसूस कर रहे थे कि गधे भी इश्क कर सकते हैं। मिसेज गधी वैसे इस नए घटनाक्रम से खुद को अपमानित महसूस कर रही थी, यह उसके प्यार के साथ बड़ी चीटिंग थी, लेकिन उसने अपने गधे का स्टेट्स बढ़ने के साथ ही उसे माफ भी कर दिया था।
मेनका गांधी की चिट्ठी लेकर इन दिनों हर कोई जानवरों के पास पहुंच रहा था। बालीबुड का प्रेम तो इन दिनों कुछ ज्यादा ही उमड़ने लगा था, यह तो ऊंट को पता था, लेकिन उसे यह जानकर बड़ी हैरानी हुई कि एक हीरो एक ऊंटनी के इश्क में पड़ गया है। मामला गंभीर था, सो ऊंट उस बुढ़ाती हीरोइन को अपनी पीठ से फेंक कर तेजी से अपने घर की ओर भागा। घर पर ऊंटनी नहीं मिली तो ऊंट बिलबिला गया। हांफता हुआ दौड़ने लगा। ऊंटनी उसे घर की छत पर बैठी मिली। छत रेगिस्तान में पड़ी हुई थी, लेकिन ऊंटनी उसे अकेली मिली। उसकी जान में जान आयी। ऊंटनी जोर-जोर से हंस रही थी।
बहुत दूर एक ऊंटनी दो कुत्तों के साथ खेल रही थी। दूसरी, एक सूअर के साथ फेरे ले रही थी। कुछ ऊंटनियां टपोरी टाइप लड़कों को लाइन मार रही थीं। कुछ ऊंटनियों को एक डायरेक्टर सा दिखना वाला आदमी समझा रहा था कि ऊंटों ने वास्तव में उनके साथ अच्छा नहीं किया, पर वह चिंता न करें। वह अपने वृत्त चित्र में दिखलाएगा कि ऊंटनियों ने किस तरह जीवन से समझौता किया और अपने कद की परवाह न करते हुए छोटे कद वालों को हमेशा सम्मान बख्शा है।

बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

मेरी प्रार्थना

(गांधी की स्मृति में एक अहिंसक प्रार्थना)

देवता देख लें
समझ लें कर लें चिंतन
बाद में उनका स्यापा
माना नहीं जाएगा
कि मैंने जो किया गलत किया
यह वह शहर है
जहां देवता भी दिखायेंगे बुजदिली
तो शामिल कर लिए जायेंगे
गुनहगारों की जमात में
देवता देख लें समझ लें और सुना दें
अपने हथियारों उपकरणों से निकलने वाला
तमतमाता हुआ अंतिम फैसला
उनके अंत से पहले

मैं प्रार्थना जरूर कर रहा हूं मगर
देवताओं, तुम्हें सुनने के लिए...

सोमवार, 29 सितंबर 2008

अपना इक़बाल गवां रही है यूपीऐ सरकार

केंद्र की यूपीए सरकार अपने कार्यकाल के चौथे साल में भी सत्ता विरोधी लहर से सुरक्षित मानी जा रही थी, लेकिन पांचवे साल के छह महीने ऊपर चढ़ते-चढ़ते उसकी इमेज दरकने लगी है। महंगाई, श्री राम सेतु और श्राइन बोर्ड विवाद ने यूपीए को इतना पीछे नहीं धकेला था, जितना लगातार हो रहे आतंकी ब्लास्ट औऱ उन पर उसके नेताओं की बयानबाजी ने धकेल दिया है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यूपीए के घटक दल और खुद कांग्रेस के मंत्री अपना बोरिया बिस्तर बंधते देखने लगे हैं और सत्ता में फिर से वापसी की खातिर अपने मूल राजनैतिक विचार को सुरक्षित राष्ट्र संचालन के कर्तव्य पर थोपने की कोशिश कर रहे हैं।
अब मान लिया जाना चाहिए कि हर आतंकी ब्लास्ट केंद्र की यूपीए सरकार को कमजोर तो कर ही रहा है, उसके मंत्रियों की बौखलाहट भी बढ़ाने का काम कर रहा है। लगातार हो रहे बम विस्फोट से इतर पूरे यूपीए में अगर कोई मंत्री अपनी संवेदनशीलता, सूझबूझ और परिपक्वता के मामले में अपनी छवि को प्रकट कर पाया है तो वह अकेले विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी हैं, किंतु यूपीए की इस मामले में गिर रही साख को सहारा देने के मामले में उनका कोई योगदान शायद नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता भी है तो फिर यूपीए के उन मंत्रियों को नकारा ही समझा जाएगा, जो अपने विभागों का दायित्व संभाल रहे हैं। वैसे इसकी भी शुरूआत प्रणव के उस बयान से हो गयी है, जो उन्होंने दिल्ली ब्लास्ट पर गृहमंत्री को नैपथ्य में रखते हुए खुद आगे आकर दिया।
गृह मंत्री शिवराज पाटिल और उनके नायब श्री प्रकाश जायसवाल बंगलुरू से शुरू हुए ब्लास्ट के बाद दिल्ली के अंतिम ब्लास्ट तक हाईस्कूल में पेपर देने वाले उस परीक्षार्थी की घबराहट का डिस्प्ले कर रहे हैं, जो पहली बार बोर्ड परीक्षा में बैठने जा रहा है। बीते शनिवार को दिल्ली में हुए ब्लास्ट के बाद दिल्ली सरकार के एक मंत्री का न्यूज चैनलों पर यह कहना भी अखर गया कि हर किसी को पुलिस सुरक्षा नहीं दी जा सकती।
शिवराज पाटिल और दिल्ली सरकार के एक मंत्री के बयान में दीन-हीन सचाई के दर्शन होते हैं। वेशक शिवराज पाटिल माइल्ड प्रोफाइल वाले मंत्री हैं, लेकिन अगर वह अपने इस बयान को कि मैं चीखूं, चिल्लाऊं या गाली दूं को अपने श्री मुख में ही स्थान दिए रहते तो उनकी किंकर्तव्यविमूढ़ वाली इमेज नुमायां नहीं होती। उस बयान में उनकी झल्लाहट भी प्रतीत होती है। अच्छा ही हुआ कि शनिवार को ब्लास्ट के बाद मीडिया में मोर्चा प्रणव मुखर्जी ने संभाला।
गृह मंत्रालय संभालने वाले दोनों मंत्रियों की जहां तक बात है तो ब्लास्ट मामलों के बाद भी केंद्रीय सत्ता प्रतिष्ठान के इस महत्वपूर्ण मंत्रालय और उसके मंत्रियों की भागदौड़ भी नजर नहीं आ रही, कार्यवाही का दिखना और जनता द्वारा उसका महसूस किया जाना तो दूसरी बात है। सपा और लोजपा नेताओं का अबू बशर के घर जाना, मानव संसाधन मंत्री द्वारा जामिया के कुलपति का खुलकर समर्थन करना कुछ ऐसे बयान हैं, जिनका ढीलापन केंद्रीय सत्ता की बखिया उधड़ने के समान नजर आ रहा है। जामिया के कुलपति जो कुछ कर रहे हैं, वह भी राष्ट्रवाद की श्रेणी में हो सकता है, लेकिन अर्जुन सिंह ने अपनी छवि जो मुस्लिम परस्त बना रखी है, वह चुनाव के समय यूपीए और खासकर कांग्रेस को भारी पड़ सकती है।
सत्ता में आसन जमाए राजा को ऐसे समय में जब प्रजा अपनी सुरक्षा के लिए राजा और उसके सम्मुख चलने वाले दरबारियों द्वारा किए जा रहे क्रिया-कर्म पर नजर गढ़ा देती है और हौसला अफजाई की उम्मीद करती है, केंद्रीय सरकार का व्यवहार आस तोड़ने वाला है। दरअसल सत्ता संगठन पोटा के बनस्वित वर्तमान कानून के नरम होने के एहसास को महसूस तो कर रहा है, लेकिन अब क्या करें। साढ़े चार साल का महत्वपूर्ण समय निकल गया है और अगले पांच महीनों में कानून बनाने की सफल कवायद नहीं की जा सकती।
यूपीए की स्थिति जंगल के राजा बने उस बंदर जैसी है, जो आग लगने पर एक पेड़ से दूसरे पर उछल कूद तो खूब कर रहा है, पर आग बुझाने की तालीम उसने नहीं ली है। कहीं ऐसा न हो कि परमाणु करार का लाभ चुनाव आते-आते इस आग में भस्म हो जाए और फिर सत्तासीन मंत्री कहें कि क्या करें, हमारी भागदौड़ में तो कोई कमी नहीं थी।
पवन निशान्त
09412777909

रविवार, 21 सितंबर 2008

मेरा निवेश अनसेफ तो नहीं

बाजार से बाहर जब सभी बिकने वाली
चीजें खरीदी जा रही थीं
तुम्हारा अंतिम प्रेम पत्र छिपाने को
मैंने खरीदा एक संदूक
जब बड़ी कविता बड़े शिल्प बड़े कैनवस
बड़े हादसे बड़ी खुशियां और बड़े फरेब
बदले जा रहे थे रुपयों में
एक संदूक में बदल लिए मैंने रुपए
तुम्हारे जैसा छिछोरापन
तुम्हारे जैसी लालसाएं
तुम्हारे जैसी मुस्कराहटें
झांक रही थीं अपने-अपने फ्रेम से
उन्हें में झांक कर पढ़ा मैंने
उसी बाजार में तुम्हारा प्रेम पत्र
बाजार में प्रेम पत्र भी हो रहे थे नीलाम
टालस्टाय के लेनिन के नेहरू के
एक छोटे कवि को लिखा गया प्रेम पत्र भी
नीलाम हुआ था और उसे मिले थे पूरे एक लाख
पर तुम्हारे प्रेम पत्र को पैसों में
बदलने से मैंने किया परहेज
बाजार में साधुओं ने खरीदे भक्त
आतंकियों ने खरीदी अमानुषिकता
नेताओं ने खरीदे वोटर मंत्रियों ने खरीदे सांसद
और पूंजीपतियों ने सरकार
वैसे ही लेकिन मैंने खरीदा एक संदूक
यह भी तो नहीं हो पाता कि हाट लगे
और बिकवाली न हो
बाजार में हों आप और कुछ भी न खरीद कर लौंटें
वैसे भी अपने कुछ रुपयों में मैं नहीं खरीदता संदूक
तो मां खरीदती चिमटा बहन खरीदती नेपकिन
या पापा खरीदते ऐसे ब्लेड वाला रेजर
जो उनकी खुरदरी दाढ़ी को
एक महीने तक साफ कर पाता
लेकिन मैंने खरीदा एक संदूक
छिपाए रखने के लिए तुम्हारा प्रेम पत्र
उस अकेलेपन के लिए
जब मैं नितांत अकेला होऊं और
बाजार के बाजीगर ढोल मजीरा पीट रहे हों
स्त्रियों के विमर्श से अकेलापन ऐसे
दूर रहता है आदमियों से जैसे अंधेरा उजाले से
और बाजार ऐसे दूर रहता है हर उस आदमी से
जो उनका ग्राहक न हो इसीलिए
जब खरीदी जा रही थीं सभी बिकने वाली चीजें
मैंने खरीद लिया एक संदूक

बुरे समय के लिए यह निवेश
क्या कभी बेवकूफी कहा जाएगा

इसे कहते हैं कामना सिद्धि

क्या यह संयोग नहीं है। मैंने दो दिन पहले ही यमुना के उस स्वरूप को अपनी स्मृतियों से बाहर निकाला था, जो अगस्त से इस माह की शुरूआत तक उन 25 दिनों तक था। मैं यमुना के कृष काय स्वरूप को देखकर दृवित हुआ था कि श्राद्ध पक्ष की बरसात ने पहाड़ों पर इतना पानी गिराया कि यमुना फिर से मन को आनंदित करने के लिए अपने स्वरूप में लौट रही हैं। आशंका तो बाढ़ की जतायी जा रही है, लेकिन मुझे भरोसा है कि यमुना कोसी के कोप को दोहराएगी नहीं। यह मेरे जैसे मानस पुत्रों की कामना पूर्ति को तत्पर रहती है। फिर भी कई आशंका जन्मी हैं अचानक। चार लाख क्यूसिक पानी की पासिंग डरा देने वाली है।
स्थिति यह है कि शुक्रवार की रात से रविवार की दोपहर तक चारलाख नौ हजार क्यूसिक पानी ताजेवाला हैड से छोड़ा गया है और यह मंगलवार से मथुरा में तबाही ला सकता है। जिला प्रशासन ने तैयारियां कर ली हैं। पुलिस और सेना को सतर्क किया गया है। पांच दर्जन गांव खाली कराए गए हैं। डेढ़ दर्जन राहत कैंप स्थापित कर दिए गए हैं। प्रशासन दिन-रात एहितयाती कदम उठाने में लगा है। मंगलवार से मथुरा, गुरुवार से आगरा और रविवार को इटावा में यह पानी पहुंचेगा।
मुझे भरोसा है कि यमुना हमारी आस्थाओं से खिलवाड़ नहीं करेगी। इसके बावजूद कि हमने उसके तन-मन और विश्वास के साथ बहुत खिलवाड़ किया है।

पवन निशान्त

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

क्या तुम्हारे शहर में भी है एक नदी..

आधे अगस्त से लेकर शुरूआती सितंबर तक यमुना वास्तव में नदी हो गयी थी। इतनी बैलौस, हंसोड़, अल्हड़, शोख और मदमाती कि उसके यौवन पर हर कोई मचल उठे। पर मेरे शहर में तो यमुना मां रूप में है। उन पच्चीस दिनों में यमुना ने जाने अपनी बीती कितनी सदियां जी लीं। जाने कैसे गीत गुनगुनाए यमुना ने कि परिंदों का कलरव घाट किनारे लौट आया। बादलों के रेवड़ जितने दिन बरसे उसी के ऊपर बरसे और हवाओं के जमघट भंगड़ियों की मिजाज पुर्सी करने में थकते नहीं रुके। कितने मखमली थे वे पच्चीस दिन और जाने कैसे लौट आए थे सालों बाद कि जिस शहर में मुंबई जैसी चौपाटी न हो या जयपुर का जंतर-मंतर न हो कि वहां कोई प्रेमी युगल अपने दुखों में कुछ पल एकांत वास कर मन का बोझ भी हल्का कर सके और वहां उन पच्चीस दिनों में जाने कितने जोड़े नावों में बैठकर वहां तक गए, जहां घाट खत्म हो जाते हैं और यमुना किनारे के जंगल की शुरूआत होती है। मैंने हर रोज प्यार करने वालों को उन जंगलों से उनके जीवन की शुरूआत करते पाया। कोई कितना भी थका-थका आया उन दिनों घाटों पर, लौटा ताजगी के साथ और खुशी में। तैराकी सीखने में बच्चों के आगे बाढ़ के स्वरूप का भय नहीं था तो पचास साल तक के प्रौढ़ रेलवे पुल और घाट किनारे की कोठियों से छलांग लगाने में रोज व्यस्त रहे।
वे पच्चीस दिन वास्तव में ऐसे दिन रहे कि जब यमुना ने किसी से कोई सवाल नहीं किया। न मुझसे, न किसी से और न खुद से। ये वे दिन थे, जब उसने जी भर कर खुद में डुबकी लगायी और हमारे मन और आत्मा की उन गहराइयों को भी गीला किया, जो न जाने कब से मात्र गीले पौंछे की तमन्ना लिए जी रही थी। सालों बाद ऐसे दिन लौटे, जब हर दिन मैं अपने हिस्से के दुख उसे देता गया और उसने आंचल पसार कर हंसी-हंसी ओढ़ लिए। एक दिन भी ऐसा नहीं हुआ, जब मैं अपना कोई दुख विश्राम घाट से वापस लेकर लौटा।
मां की जवानी लौटते देख उसके मानस पुत्रों ने भी उसका श्रंगार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। रोली, सौभाग्यदायक मेंहदी, चूड़ी, बिंदी लगायी, मेकअप किए। आचमनी ली, भोग लगाए और हर-हर गंगे की डुबकी। चुनरी मनोरथ भी खूब हुए।
मथुरा पुरी में यात्री-परदेसी तो हर रोज आते हैं, पर उन दिनों जाने कैसे मंत्र हवाओं में तैर रहे थे और जाने कौन सा वशीकरण उन्हें मोह रहा था कि पंडों-पुरोहितों को दान-दक्षिणा पहले से और अब से ज्यादा मिली। बिहार के दरभंगा, समस्तीपुर, पटना, रांची, धनबाद और उस कोसी नदी के किनारे वाले श्रद्दालु भी हर साल की तरह आए और उन दिनों उन पर भी यमुना के ऐसे मनमोहक और गदराए स्वरूप को सहेजकर ले जाने की ललक थी कि पाप से उरण कराने के लिए उन्होंने पंडों से मांग-मांग कर आशीष लिए। उन्हें क्या पता था कि उनकी अपनी कोसी उनसे इतनी रुष्ट हो जाएगी कि न आंगन छोड़ेगी, न घर, न घर की छत और न छत पर बैठे उनके उस नन्हें बालक को जो दो-चार साल बाद मथुरा पुरी का यात्री हो सकता था।
खैर, यमुना कभी इतनी गुस्सैल नहीं रही। इसके कई कारण हैं। यमुनोत्री से शुरू होकर समंदर में समाने तक यमुना का कोई एकमात्र तीर्थ है तो मथुरा पुरी ही है और उसका भी एकमात्र घाट-विश्राम घाट। फिर वह यहां अपने पूरे परिवार के साथ बिराज रही है। यम द्वितीया पर यमफांस से उरण कराने वाली पतित पावनी यमुना का भाई यम यहीं बैठा है तो कालिंदी का भाई शनि भी यहीं जमा हुआ है कोकिलावन में। बहन के घर शनिदेव की इत्ती महत्ता बढ़ गयी है कि हर कोई आजकल दौड़ा-दौड़ा आ रहा है, इस आस में कि बहन के घर आया भाई खाली हाथ नहीं लौटाएगा। मांगोगे तो कुछ देकर ही पिंड छुड़ाएगा। सोलह हजार रानियों में यमुना महारानी को अपनी पटरानी बनाने वाले राजाधिराज द्वारिकाधीश भी तो यहीं बिराज रहे हैं। जिस ओर यमुना जी ने कभी अपनी अल्हड़ जवानी में कदम बढ़ाए होंगे, वहीं से, ठीक उसी दिशा से उसके पिता भाष्कर भगवान नित्य प्रहरी की तरह निकलते हैं।
यह ठीक है कि यमुना अब बुढ़ा गयी है। पतित पावनी यमुना खुद पतिता हो गयी हैं। इतनी जर्जर काया की हो गयी है यमुना कि गुस्सा करने का उसमें सामर्थ्य भी नहीं रहा। इसका एहसास हमें हो या न हो, पर सरकार और उसके नुमाइंदों को जरूर है। जैसे अमेरिका की लेहमन ब्रदर्स और एआईजी के दिवालिया होने के बाद भारतीय वित्त मंत्री ने झूठ बोला कि इंडिया की अर्थव्यवस्था सुरक्षित है। जिस तरह बंगलुरू, जयपुर, सूरत, अहमदाबाद और दिल्ली के आतंकी ब्लास्ट के बाद भारत के गृहमंत्री ने झूठ बोला कि देश सुरक्षित है, ठीक उसी तरह इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर चल रही यमुना कार्ययोजना के अधिकारी झूठ बोलने में पीछे नहीं हैं।
दस साल पहले जिस गोकुल बैराज को इस लिए बनाया गया था कि यहां पानी रोका जाएगा तो घाटों पर यमुना जल का आचमन लेना सुलभ होगा, वहां यमुना एक गंदा नाला बनकर रह गयी है। जापान के सहयोग से यहां तीस करोड़ रुपए एसटीपी-एसपीएस बनाने में खर्च किए गए और हर साल एक करोड़ इन्हें संचालित करने में खर्च हो रहे हैं, इसके बावजूद बीओडी, सीओडी दस साल के मुकाबले सौ-पचास गुना बढ़ी हुई है। अवैध कट्टीघर को सरकार बंद तो नहीं करा पायी, हां, हाईकोर्ट में जरूर शपथ पत्र लगा हुआ है और हर तारीख पर एक झूठा शपथ पत्र जमा हो जाता है। सरकारी मशीनरी तो ऐसी है ही, हाईकोर्ट ने भी दस साल में यह संज्ञान लेने की जहमत नहीं उठायी कि उसके आदेश किन फाइलों में फना पड़े हैं। वहां तो बस पड़ रही है तारीख पर तारीख।
मैं एक ऐसे शहर में हूं, जो तीन लोक से न्यारा कहा जाता है। दस साल से यमुना पर रिपोर्टिंग करते-करते अब उसकी खबरों की रि-साइकिलिंग सी हो गयी है। यहां की खबरें अखबारों के लोकेलाइजेशन में यहीं दफन हो जाती हैं। न लखनऊ तक पहुंचती हैं और न इलाहाबाद तक। मैं अपनी बीट तो बदल सकता हूं, पर आस्था और संस्कार कैसे बदलूं। यह नदी जो काली-कलूटी है, सभ्यता ने लूटी है, इसी के यमुना जल ने बनाया था मेरे अंदर हीमोग्लोबिन। इसी के जलकणों से बना है शरीर को बढ़ाने वाला जीवाणु। और आत्मा के अनहद नाद में शामिल है इसी की लहरों का स्पंदन। वे पच्चीस दिन मुझे तो मेरी स्मृति में कल्प दे गए हैं। तुम्हारी नदी तुम्हें इतना प्यार करती है तो तुम भी छोड़ोगे अपनी कैंचुरी। एकदिन।।

शुक्रवार, 5 सितंबर 2008

मैं बारूद में हूँ

(ई हिंदी साहित्यिक पत्रिका कथा व्यथा के सितंबर 09 अंक से साभार)

-पवन निशान्त-

मैं बारूद में था
और लगातार फट रहा था
मैं फट रहा था और बहरों के
कान लगातार फोड़ रहा था
उनसे मैल निकल रहा था
मवाद निकल रहा था
चीखें निकल रही थीं
कई कराह रहे थे और कुछ कसमसा रहे थे
फूटे कान बुदबुदाने लगे थे
वे फटना नहीं चाहते थे मगर
मैंने उन्हें फोड़ दिया था।

मैं सालों बारूद में रहा
और दसों दिशाओं से गायब हो गए बहरे
सर्जरी कराने लगे कई बहरे
या कान को हाथ में रखकर चलने लगे
बारूद का खौफ बहरों पर तारी था
कोई बहरा ढूंढ लाने पर ईनाम घोषित कर दिया गया था
ढूंढे नहीं मिलते थे बहरे
जनता अदालत के बीच पड़ी कुर्सियों पर
तहसील दिवस में चौड़ी टेबिल के इर्द-गिर्द
और न उस इमारत में जहां चुनी हुई राजनैतिक आत्माएं
गांधी का सूत पहने सबसे पहले बहरा होने का
उपक्रम करतीं अक्सर दिख जाती थीं।

मैं बारूद में हूं
कोई गूंगा है तो भी
उसे सुना जाने लगा है
खेत पर खाली हाथ जाने वाले
मुआवजे के हकदार हो गए हैं
साइकिल चला लेने वाले
लखटकिया बाइक लेकर लौट रहे हैं
कोई बोलता है तो उसे चीख माना जाने लगा है
शिकायत करते ही समाधान चलकर आने लगे हैं
लोगों की चौखट पर सुबह सुबह।

अफसर फूटे कानों से अलंकृत हैं
और उपकृत दिखने की मुद्रा में खड़े हैं
गति को रोक देने वाला निशान (यह निशान लाल भी हो सकता था)
दौड़ते हुए सिस्टम की पहचान है अब।

मैं बारूद में बसे रहना चाहता हूं
लोगों ने मुझे दीर्घायु होने का आशीर्वाद दिया है।।


परिचय:

जन्म-11 अगस्त 1968, रिपोर्टर दैनिक जागरण, रुचि-कविता, व्यंग्य, ज्योतिष और पत्रकारिता
पता-69-38, महिला बाजार, सुभाष नगर, मथुरा, (उ.प्र.) पिन-281001.

E-mail:pawannishant@yahoo.com

रविवार, 31 अगस्त 2008

क्या मेरा डर लौटेगा..कभी नहीं

मैं जो भी हूं,भीड़ का चेहरा हूं। भीड़ में रहता हूं। भीड़ का मनोविज्ञान समझने की कोशिश कर रहा हूं। मैं मनोविज्ञान की कोई डिग्री हासिल नहीं कर सका, पर लोगों के चेहरे पढ़ना मेरी आदत है। जो चेहरे मेरे चेहरे पर अपनी आंखें गढ़ा देते हैं या कि जिन चेहरों पर मेरी नजर जम जाती है या कि जो चेहरे भीड़ में गुम हैं और जो प्रकृति के सारे आशीर्वाद मौजूद होने के बावजूद अपने सपने पूरे नहीं कर पा रहे अथवा जिन चेहरों को दुख-दर्द दूर करने में सफलता नहीं मिल रही, ऐसे चेहरों पर उनके प्रारब्ध को पढ़ने की मैं कोशिश करता हूं। और इस तरह मैं ज्योतिष शास्त्र का विद्यार्थी भी हूं।
कुछ अनुभूत प्रयोग के साथ बता दूं कि ज्योतिष के प्रयोगों से मैं जितनी मदद ले सकता हूं, ले रहा हूं और भीड़ से बाहर खींचने में ब्रह्मांड के वे सभी ग्रह जो मेरे उतने फेवर में नहीं हैं जितने कि एक बादशाह के होते हैं,मुझे फिर भी मदद कर रहे हैं। मूलतः मैं एक पत्रकार हूं, जन्मजात पत्रकार। आठ-नौ साल की उम्र में लिखी कविता किसी अखबार में क्या छप गयी, सोलह साल की उम्र तक कविता से प्यार हो गया। और मैं पवन दत्त शर्मा से पवन निशान्त बन गया। कविता के रोग ने पापा के मुझे इंजीनियर बनाने के सपने को अधूरा छुड़वा दिया।
उन्होंने अपने तंग हालात में मुझे बीएससी कराने की भरसक कोशिश की, पर मैं प्रथम वर्ष में ही पचास फीसदी से कम नंबर लाया और उन्होंने हताश होकर गुस्से में मुझे बीए में दाखिला दिला दिया। कवि गोष्ठियों और सम्मेलनों और एनएसय़ूआई की राजनीति ने जो बेड़ा गरक किया सो किया, रही-सही कसर उस रोग ने निकाल दी, जो हर टीन एजर्स को हो जाता है। उस पर मेरे मथुरा-वृंदावन के यमुना किनारे के घाट, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक वातावरण की छाप। और छोटी सी उम्र से अखबारों की नौकरी। मैं पत्रकारिता को पहले नौकरी नहीं समझता था, अब कहता हूं। और इस तरह भीड़ के जिन चेहरों पर मनोविज्ञान और ज्योतिष और कविता के अलावा भी कुछ बच जाता है और जब ऐसा लगता है कि कोई चेहरा खबर बनवा रहा है,तब मैं अपनी नौकरी के लिए ऐसे चेहरों को बचा कर रख लेता हूं।
मथुरा से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका इरा इंडिया से में सफर शुरु किया। मथुरा से ही प्रकाशित सांध्य दैनिक राजपथ के बाद मथुरा में दैनिक आज में स्टाफ रिपोर्टर बना। दैनिक आज के आगरा संस्करण आफिस में उप संपादक रहा। मुंबई में निखिल वागले के हिंदी दैनिक हमारा महानगर और बाला साहेब ठाकरे के दोपहर का सामना में दस साल बतौर उप संपादक काम किया। फिर घर लौटा तो अमर उजाला मथुरा में रिपोर्टर रहा और अब दैनिक जागरण के मथुरा संस्करण में कार्यरत हूं। मुंबई में पत्रकार ही नहीं रहा,पंजाबी फिल्मों के निर्देशक हरेंद्र गिल की फिल्म तन्हाई से सहायक निर्देशक से शुरूआत की। निर्देशक के. विनोद की फिल्म दिल अपना प्रीत पराई में कुछ माह सहायक निर्देशक रहा फिर प्रख्यात फिल्म निर्देशक पंकज पाराशर के सहायक बतौर मेरी बीबी का जवाब नहीं, राजकुमार और हिमालय पुत्र में सहायक रहा।
टीवी चैनल एटीएन पर सामना के तीन साथियों के साथ निर्माता निर्देशक की हैसियत से काउंट डाउन शो इंडिया टाप टेन बनाया, जो 16 अक्टूबर 95 से शुरू होकर 6 जनवरी 96 तक प्रसारित हुआ। टीवी निर्देशक अनिल चौधरी, संगीतकार ऊषा खन्ना, खलनायक गुलशन ग्रोवर, कवि शैल चतुर्वेदी, टीवी आर्टिस्ट अर्चना पूरन सिंह और पत्रकार से राजनेता बने संजय निरूपम का सानिध्य पाया। फिल्म कथाकार और गीतकार बन सकता था, पर इस अकड़ ने कि अपना लिखा बेचूंगा नहीं, मैं लौट आया। आठ साल से मथुरा में हूं, भीड़ का चेहरा हूं। ऐसा ही हूं में।
मैं जो भी कर रहा हूं, अपनी त्वरा, प्रतिभा, समर्पण, आक्रामकता, चिंतन, सहयोग की पूरी समिधा लगा रहा हूं। उम्मीद है भीड़ में आजन्म बना रहूंगा या निकल आऊंगा। इसीलिए मैंने इस ब्लाग का नाम रखा है-या मेरा डर लौटेगा। लेकिन क्या मेरा डर लौटेगा।
ब्लाग भड़ासियों की दुनिया में पहला कदम रखा है। बहुत सालों का रुका हुआ हूं। इसलिए उस समय की कविताएं पेल रहा हूं, जब किसी का साथ हो जाने से पहले और किसी का साथ मिल जाने के बाद तन्हाई का लंबा रास्ता कभी नहीं नाप सका। समाज में बैठे उच्च कोटि के नीच लोगों के अनुभव मिलाकर कहूं तो उन ऊंटपटांग हरकतों पर अब हंसी आती है। समाचार लेखन में मन की संतुष्टी अखबारों की नई नीतियों ने खत्म कर दी है, इसलिए दोस्तों हर विषय पर अब खुलकर बातें इसी मंच पर हुआ करेंगी। बोलो-क्या मेरा डर लौटेगा......

एक दिन लौट आएंगी प्रेमिकाएं

ह्रदय बींध कर चली गयी प्रेमिकाओं के
चित्रों की प्रदर्शनी लगी है
चित्र में प्रेमिका हंस रही है
ठिठोली कर रही है
कविता लिख रहे प्रेमी का
उड़ा रही है मजाक

पहाड़ से कूद मरने का डर
दिखा रही है उसके वियोग में
चालाक भाई से नजर बचा
पढ़ना चाह रही है उसके लिए
लिखा गया प्रेम पत्र
कामायनी की जगह लिखने पड़ रहे हैं पत्र
गणित के सूत्र रटने के स्थान पर
हिसाब लगा रही है उसके साथ बिताए दिनों का
इम्तिहान में मिलने जा रही है चोरी छिपे पार्क में
और योजना बना रही है
कहीं निकल जाने का उसके साथ
इम्तिहान बाद एक और इम्तिहान के लिए

चित्र से धीरे-धीरे बाहर आ रही प्रेमिका
उसे ले रही है आगोश में
सुला रही है सीने पर
लगता है पूरी तरह उतार देगी थकान
उसके पैरों में घुंघरू झुनझुनाएंगे
तबला बजेगा और किसी बादशाह की नजर से
देखेगा वह उसका दैवीय नृत्य

दूर जा चुकी प्रेमिकाएं
वापस आ रही हैं अपने वतन
एक प्रेमी उसे देखते ही
सीने से सटा लेगा
दूसरा उसके साथ जीभर नाचेगा
तीसरा फिर से उठाएगा कलम
चौथा पहाड़ पर जाएगा उसके साथ
पांचवा चला जाएगा दिल्ली उसे लेकर
कोई घर पर ही रखेगा मां-बाप के साथ
और कोई हो जाएगा इतना मस्त कि
आने वालों का करने लगेगा मार्गदर्शन
एक जो मरने जा रहा था
लौटते हुए गुनगुनाएगा प्रेम के गीत
एक अपनी जेब के सारे पैसे
भिखारिन को देना चाहेगा
ताकि वह लौट सके अपने भिखारी के पास
और अगला अपना सबकुछ लुटाकर
ऐसे होगा खुश कि पहले कभी हुआ न हो

चित्रों में हरकत होने लगी है
अपना स्थान बना रहे हैं चित्र
प्रदर्शनी अभी लगी ही रहेगी

पहाड़ पर वह बहुत याद आती है

उसका मकसद क्या है
उसकी इच्छाएं इतनी उड़ान क्यों भरती हैं
और उसके सपने किस घर जाते हैं

उसे हर चीज के प्रतिबिम्ब दिखाए गए
उसे उसके जीवन जीने के ढंग के
बारे में लिया गया एक साक्षात्कार
और समुद्र के पार एक बस्ती दिखायी गयी
यहां वह अपना घर बसा सकती थी

समुद्र ज्वार-भाटों से ऊपर उठ गया था
लहरें मुहं चुराकर छिप गयीं थीं
उसके सीने में
मछलियों ने बनाया था एक पुल
और उसकी वनस्पतियों ने
उपज कर दिखाया था किसी के
जिस्म पर पहली बार

सुखद जीवन का गणित हल करने को
खंगाला गया था बीज गणित
त्रिकोणमितीय के जरिए किया गया
आने वाली आपदाओं का दिशा बोध
और विवेक बना रहे बुरे समय में
इसके लिए एक प्राथर्ना पत्र
पहले ही ठोंक दिया गया था ईश्वर की मेज पर

उसे अपनी गरीबी में भी दी गयीं भेंट
साक्ष्य के लिए पुस्तकालयों में जाकर
पढ़ाए गए शास्त्र वेद पुराण

रचना कर्म के लिए कई बार
बुक कराए गए प्रायः मंहगे होटल
उसने कहा था-पहाड़ पर दौड़ने के बाद
शरीर का शिथिल होना आवश्यक है

यकायक क्यों निष्ठुर हुए उसके निर्णय
उसके सपनों को किस बस्ती में घर मिल गया
और उसके मकसद
बहुत दूर जाकर ही
क्यों हुए झंकृत

पहाड़ पर वह बहुत याद आती है
और पहाड़ से नीचे तो भुलायी ही नहीं जाती

बड़बड़ा रही है कविता

कवि ने लिखी सचमुच की कविता
और सपने में मिला उसे पुरस्कार

कवि ने कैनवस पर उतारे शब्द चित्र
मन में कुलबुला गयी कोई पीड़ा

कवि ने हाथों-हाथ लिया उसे
पर सिर चढ़कर बोली
उसकी गरीबी

कवि ने बख्शी उसे उसकी इज्जत
पर कवि के लिए रचे गए
पीड़ा के छंद

कवि ने अग्नि से पूछा उसका संताप
और जल उठे उसके अपने रक्त संबंध

कवि ने जाननी चाही
हवाओं से उनकी थकान
और ढेर हो गया उसका अपना हमसफर

कवि जब चुप हुआ तो
बड़बड़ाने लगी उसकी कविता

-क्या सबेरे के सूरज में
कवियों के पुरखों का उजाला शामिल नहीं है

शनिवार, 30 अगस्त 2008

ठंडे संबंधों में ऊष्मा चाहिए

आओ सूर्य आओ
उसके ठंडे संबंधों को ऊष्मा दो
यह तो सब कपट कारिंदे हैं
घने कोहरे
गरजते बादल
इन्होंने ही पैदा किया है
ठंडापन गरजकर-बरसकर
यह तो सब व्यापारी हैं
इन्होंने ही बढ़ाया है अवमूल्यन
मौसम में सावन भादों में
अंबर के नील पर चमकते सूर्य
तुम कितना भागे हो
या कि डटे रहते हो
तुम कितने अपराजित हो
या कि पराजित हुए हो
-जितना वह

आओ अंबर के प्रहरी
खलाओं को चकरघिन्नी खिलाते सूर्य
उफक पर मंडराते काले बादलों के पिंड को
सुखा दो अभी सुखा दो
उसके ठंडे संबंधों में ऊष्मा भर दो
और उफक पर उसे बस जाने दो

बौने हैं मांझी के हाथ

बौने हैं मांझी के हाथ
उफनती नदी के साथ
उलट ही गयी रक्त संबंधों की नाव

बौने हैं सात फेरों के योग
संयोग और भोग
गिरा ही दी वक्त ने कसमों की कुतुबमीनार

बौने हैं उपचार चंद
मखमल के पैबंद
बढ़ा ही दिए मरहम ने दर्द के विस्तार

बौने हैं सावन के गीत
प्रकृति और पीले पत्तों का संगीत
झुठला ही दिया श्वांस ने हवाओं का शोर

बौने हैं सब तथाकथित
चिर-परिचित
टूट ही गयी बुरे समय में अपनों की डोर

प्यार बीते कल की तरह है..

प्यार बीते कल की तरह है

महुआ तुतलाती
मैं भी तुतलाता
और हम एक खेल बन जाते

महुआ खेलकर बड़ी हो गयी
मैं डांट खाकर चुप हो गया
और मां स्कूल जाकर पढ़ाने लगी

महुआ बड़ी होकर भूल गयी
मैं चुप शहर चला आया
और मां की ममता को लग गए दीमक

जो जैसा जहां था
फिर नहीं लौटा

प्यार बीते कल की तरह है...

पुतलियां मरुथल

बह रही हवा की तरह है प्यार

पता नहीं कब मौसम हो जाए शुष्क
पता नहीं कब होने लगे बरसात
पता नहीं कब आंखों से बह निकले झरना
पता नहीं कब पुतलियां हो बैठें मरुथल

पता नहीं कभी भी कुछ हो जाने का
बस थोड़ा सा विश्वास है
और ढेर सारी चिंताएं
कुछ अपनी कही जाने वाली सूरतें हैं
और एक लंबा उदास और वीरान रास्ता
हर क्षण अकेलापन है
किसी का साथ हो जाने से पहले
और किसी का साथ हो जाने के बाद

कोई पुकारता है तो सन्नाटा खिंच जाता है
भीतर-भीतर मन में और भीतर
और कोई नहीं पुकारता है
तो भी सन्नाटा खिंच जाता है
भीतर-भीतर मन में और भीतर

सारे गणित और पदचिह्नित सूत्र
कभी इन सवालों को हल करने के काम क्यों नहीं आते
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मेरे बारे में

mathura, uttar pradesh, India
पेशे से पत्रकार और केपी ज्योतिष में अध्ययन। मोबाइल नंबर है- 09412777909 09548612647 pawannishant@yahoo.com www.live2050.com www.familypandit.com http://yameradarrlautega.blogspot.com
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