रविवार, 31 अगस्त 2008

क्या मेरा डर लौटेगा..कभी नहीं

मैं जो भी हूं,भीड़ का चेहरा हूं। भीड़ में रहता हूं। भीड़ का मनोविज्ञान समझने की कोशिश कर रहा हूं। मैं मनोविज्ञान की कोई डिग्री हासिल नहीं कर सका, पर लोगों के चेहरे पढ़ना मेरी आदत है। जो चेहरे मेरे चेहरे पर अपनी आंखें गढ़ा देते हैं या कि जिन चेहरों पर मेरी नजर जम जाती है या कि जो चेहरे भीड़ में गुम हैं और जो प्रकृति के सारे आशीर्वाद मौजूद होने के बावजूद अपने सपने पूरे नहीं कर पा रहे अथवा जिन चेहरों को दुख-दर्द दूर करने में सफलता नहीं मिल रही, ऐसे चेहरों पर उनके प्रारब्ध को पढ़ने की मैं कोशिश करता हूं। और इस तरह मैं ज्योतिष शास्त्र का विद्यार्थी भी हूं।
कुछ अनुभूत प्रयोग के साथ बता दूं कि ज्योतिष के प्रयोगों से मैं जितनी मदद ले सकता हूं, ले रहा हूं और भीड़ से बाहर खींचने में ब्रह्मांड के वे सभी ग्रह जो मेरे उतने फेवर में नहीं हैं जितने कि एक बादशाह के होते हैं,मुझे फिर भी मदद कर रहे हैं। मूलतः मैं एक पत्रकार हूं, जन्मजात पत्रकार। आठ-नौ साल की उम्र में लिखी कविता किसी अखबार में क्या छप गयी, सोलह साल की उम्र तक कविता से प्यार हो गया। और मैं पवन दत्त शर्मा से पवन निशान्त बन गया। कविता के रोग ने पापा के मुझे इंजीनियर बनाने के सपने को अधूरा छुड़वा दिया।
उन्होंने अपने तंग हालात में मुझे बीएससी कराने की भरसक कोशिश की, पर मैं प्रथम वर्ष में ही पचास फीसदी से कम नंबर लाया और उन्होंने हताश होकर गुस्से में मुझे बीए में दाखिला दिला दिया। कवि गोष्ठियों और सम्मेलनों और एनएसय़ूआई की राजनीति ने जो बेड़ा गरक किया सो किया, रही-सही कसर उस रोग ने निकाल दी, जो हर टीन एजर्स को हो जाता है। उस पर मेरे मथुरा-वृंदावन के यमुना किनारे के घाट, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक वातावरण की छाप। और छोटी सी उम्र से अखबारों की नौकरी। मैं पत्रकारिता को पहले नौकरी नहीं समझता था, अब कहता हूं। और इस तरह भीड़ के जिन चेहरों पर मनोविज्ञान और ज्योतिष और कविता के अलावा भी कुछ बच जाता है और जब ऐसा लगता है कि कोई चेहरा खबर बनवा रहा है,तब मैं अपनी नौकरी के लिए ऐसे चेहरों को बचा कर रख लेता हूं।
मथुरा से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका इरा इंडिया से में सफर शुरु किया। मथुरा से ही प्रकाशित सांध्य दैनिक राजपथ के बाद मथुरा में दैनिक आज में स्टाफ रिपोर्टर बना। दैनिक आज के आगरा संस्करण आफिस में उप संपादक रहा। मुंबई में निखिल वागले के हिंदी दैनिक हमारा महानगर और बाला साहेब ठाकरे के दोपहर का सामना में दस साल बतौर उप संपादक काम किया। फिर घर लौटा तो अमर उजाला मथुरा में रिपोर्टर रहा और अब दैनिक जागरण के मथुरा संस्करण में कार्यरत हूं। मुंबई में पत्रकार ही नहीं रहा,पंजाबी फिल्मों के निर्देशक हरेंद्र गिल की फिल्म तन्हाई से सहायक निर्देशक से शुरूआत की। निर्देशक के. विनोद की फिल्म दिल अपना प्रीत पराई में कुछ माह सहायक निर्देशक रहा फिर प्रख्यात फिल्म निर्देशक पंकज पाराशर के सहायक बतौर मेरी बीबी का जवाब नहीं, राजकुमार और हिमालय पुत्र में सहायक रहा।
टीवी चैनल एटीएन पर सामना के तीन साथियों के साथ निर्माता निर्देशक की हैसियत से काउंट डाउन शो इंडिया टाप टेन बनाया, जो 16 अक्टूबर 95 से शुरू होकर 6 जनवरी 96 तक प्रसारित हुआ। टीवी निर्देशक अनिल चौधरी, संगीतकार ऊषा खन्ना, खलनायक गुलशन ग्रोवर, कवि शैल चतुर्वेदी, टीवी आर्टिस्ट अर्चना पूरन सिंह और पत्रकार से राजनेता बने संजय निरूपम का सानिध्य पाया। फिल्म कथाकार और गीतकार बन सकता था, पर इस अकड़ ने कि अपना लिखा बेचूंगा नहीं, मैं लौट आया। आठ साल से मथुरा में हूं, भीड़ का चेहरा हूं। ऐसा ही हूं में।
मैं जो भी कर रहा हूं, अपनी त्वरा, प्रतिभा, समर्पण, आक्रामकता, चिंतन, सहयोग की पूरी समिधा लगा रहा हूं। उम्मीद है भीड़ में आजन्म बना रहूंगा या निकल आऊंगा। इसीलिए मैंने इस ब्लाग का नाम रखा है-या मेरा डर लौटेगा। लेकिन क्या मेरा डर लौटेगा।
ब्लाग भड़ासियों की दुनिया में पहला कदम रखा है। बहुत सालों का रुका हुआ हूं। इसलिए उस समय की कविताएं पेल रहा हूं, जब किसी का साथ हो जाने से पहले और किसी का साथ मिल जाने के बाद तन्हाई का लंबा रास्ता कभी नहीं नाप सका। समाज में बैठे उच्च कोटि के नीच लोगों के अनुभव मिलाकर कहूं तो उन ऊंटपटांग हरकतों पर अब हंसी आती है। समाचार लेखन में मन की संतुष्टी अखबारों की नई नीतियों ने खत्म कर दी है, इसलिए दोस्तों हर विषय पर अब खुलकर बातें इसी मंच पर हुआ करेंगी। बोलो-क्या मेरा डर लौटेगा......

एक दिन लौट आएंगी प्रेमिकाएं

ह्रदय बींध कर चली गयी प्रेमिकाओं के
चित्रों की प्रदर्शनी लगी है
चित्र में प्रेमिका हंस रही है
ठिठोली कर रही है
कविता लिख रहे प्रेमी का
उड़ा रही है मजाक

पहाड़ से कूद मरने का डर
दिखा रही है उसके वियोग में
चालाक भाई से नजर बचा
पढ़ना चाह रही है उसके लिए
लिखा गया प्रेम पत्र
कामायनी की जगह लिखने पड़ रहे हैं पत्र
गणित के सूत्र रटने के स्थान पर
हिसाब लगा रही है उसके साथ बिताए दिनों का
इम्तिहान में मिलने जा रही है चोरी छिपे पार्क में
और योजना बना रही है
कहीं निकल जाने का उसके साथ
इम्तिहान बाद एक और इम्तिहान के लिए

चित्र से धीरे-धीरे बाहर आ रही प्रेमिका
उसे ले रही है आगोश में
सुला रही है सीने पर
लगता है पूरी तरह उतार देगी थकान
उसके पैरों में घुंघरू झुनझुनाएंगे
तबला बजेगा और किसी बादशाह की नजर से
देखेगा वह उसका दैवीय नृत्य

दूर जा चुकी प्रेमिकाएं
वापस आ रही हैं अपने वतन
एक प्रेमी उसे देखते ही
सीने से सटा लेगा
दूसरा उसके साथ जीभर नाचेगा
तीसरा फिर से उठाएगा कलम
चौथा पहाड़ पर जाएगा उसके साथ
पांचवा चला जाएगा दिल्ली उसे लेकर
कोई घर पर ही रखेगा मां-बाप के साथ
और कोई हो जाएगा इतना मस्त कि
आने वालों का करने लगेगा मार्गदर्शन
एक जो मरने जा रहा था
लौटते हुए गुनगुनाएगा प्रेम के गीत
एक अपनी जेब के सारे पैसे
भिखारिन को देना चाहेगा
ताकि वह लौट सके अपने भिखारी के पास
और अगला अपना सबकुछ लुटाकर
ऐसे होगा खुश कि पहले कभी हुआ न हो

चित्रों में हरकत होने लगी है
अपना स्थान बना रहे हैं चित्र
प्रदर्शनी अभी लगी ही रहेगी

पहाड़ पर वह बहुत याद आती है

उसका मकसद क्या है
उसकी इच्छाएं इतनी उड़ान क्यों भरती हैं
और उसके सपने किस घर जाते हैं

उसे हर चीज के प्रतिबिम्ब दिखाए गए
उसे उसके जीवन जीने के ढंग के
बारे में लिया गया एक साक्षात्कार
और समुद्र के पार एक बस्ती दिखायी गयी
यहां वह अपना घर बसा सकती थी

समुद्र ज्वार-भाटों से ऊपर उठ गया था
लहरें मुहं चुराकर छिप गयीं थीं
उसके सीने में
मछलियों ने बनाया था एक पुल
और उसकी वनस्पतियों ने
उपज कर दिखाया था किसी के
जिस्म पर पहली बार

सुखद जीवन का गणित हल करने को
खंगाला गया था बीज गणित
त्रिकोणमितीय के जरिए किया गया
आने वाली आपदाओं का दिशा बोध
और विवेक बना रहे बुरे समय में
इसके लिए एक प्राथर्ना पत्र
पहले ही ठोंक दिया गया था ईश्वर की मेज पर

उसे अपनी गरीबी में भी दी गयीं भेंट
साक्ष्य के लिए पुस्तकालयों में जाकर
पढ़ाए गए शास्त्र वेद पुराण

रचना कर्म के लिए कई बार
बुक कराए गए प्रायः मंहगे होटल
उसने कहा था-पहाड़ पर दौड़ने के बाद
शरीर का शिथिल होना आवश्यक है

यकायक क्यों निष्ठुर हुए उसके निर्णय
उसके सपनों को किस बस्ती में घर मिल गया
और उसके मकसद
बहुत दूर जाकर ही
क्यों हुए झंकृत

पहाड़ पर वह बहुत याद आती है
और पहाड़ से नीचे तो भुलायी ही नहीं जाती

बड़बड़ा रही है कविता

कवि ने लिखी सचमुच की कविता
और सपने में मिला उसे पुरस्कार

कवि ने कैनवस पर उतारे शब्द चित्र
मन में कुलबुला गयी कोई पीड़ा

कवि ने हाथों-हाथ लिया उसे
पर सिर चढ़कर बोली
उसकी गरीबी

कवि ने बख्शी उसे उसकी इज्जत
पर कवि के लिए रचे गए
पीड़ा के छंद

कवि ने अग्नि से पूछा उसका संताप
और जल उठे उसके अपने रक्त संबंध

कवि ने जाननी चाही
हवाओं से उनकी थकान
और ढेर हो गया उसका अपना हमसफर

कवि जब चुप हुआ तो
बड़बड़ाने लगी उसकी कविता

-क्या सबेरे के सूरज में
कवियों के पुरखों का उजाला शामिल नहीं है

शनिवार, 30 अगस्त 2008

ठंडे संबंधों में ऊष्मा चाहिए

आओ सूर्य आओ
उसके ठंडे संबंधों को ऊष्मा दो
यह तो सब कपट कारिंदे हैं
घने कोहरे
गरजते बादल
इन्होंने ही पैदा किया है
ठंडापन गरजकर-बरसकर
यह तो सब व्यापारी हैं
इन्होंने ही बढ़ाया है अवमूल्यन
मौसम में सावन भादों में
अंबर के नील पर चमकते सूर्य
तुम कितना भागे हो
या कि डटे रहते हो
तुम कितने अपराजित हो
या कि पराजित हुए हो
-जितना वह

आओ अंबर के प्रहरी
खलाओं को चकरघिन्नी खिलाते सूर्य
उफक पर मंडराते काले बादलों के पिंड को
सुखा दो अभी सुखा दो
उसके ठंडे संबंधों में ऊष्मा भर दो
और उफक पर उसे बस जाने दो

बौने हैं मांझी के हाथ

बौने हैं मांझी के हाथ
उफनती नदी के साथ
उलट ही गयी रक्त संबंधों की नाव

बौने हैं सात फेरों के योग
संयोग और भोग
गिरा ही दी वक्त ने कसमों की कुतुबमीनार

बौने हैं उपचार चंद
मखमल के पैबंद
बढ़ा ही दिए मरहम ने दर्द के विस्तार

बौने हैं सावन के गीत
प्रकृति और पीले पत्तों का संगीत
झुठला ही दिया श्वांस ने हवाओं का शोर

बौने हैं सब तथाकथित
चिर-परिचित
टूट ही गयी बुरे समय में अपनों की डोर

प्यार बीते कल की तरह है..

प्यार बीते कल की तरह है

महुआ तुतलाती
मैं भी तुतलाता
और हम एक खेल बन जाते

महुआ खेलकर बड़ी हो गयी
मैं डांट खाकर चुप हो गया
और मां स्कूल जाकर पढ़ाने लगी

महुआ बड़ी होकर भूल गयी
मैं चुप शहर चला आया
और मां की ममता को लग गए दीमक

जो जैसा जहां था
फिर नहीं लौटा

प्यार बीते कल की तरह है...

पुतलियां मरुथल

बह रही हवा की तरह है प्यार

पता नहीं कब मौसम हो जाए शुष्क
पता नहीं कब होने लगे बरसात
पता नहीं कब आंखों से बह निकले झरना
पता नहीं कब पुतलियां हो बैठें मरुथल

पता नहीं कभी भी कुछ हो जाने का
बस थोड़ा सा विश्वास है
और ढेर सारी चिंताएं
कुछ अपनी कही जाने वाली सूरतें हैं
और एक लंबा उदास और वीरान रास्ता
हर क्षण अकेलापन है
किसी का साथ हो जाने से पहले
और किसी का साथ हो जाने के बाद

कोई पुकारता है तो सन्नाटा खिंच जाता है
भीतर-भीतर मन में और भीतर
और कोई नहीं पुकारता है
तो भी सन्नाटा खिंच जाता है
भीतर-भीतर मन में और भीतर

सारे गणित और पदचिह्नित सूत्र
कभी इन सवालों को हल करने के काम क्यों नहीं आते
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मेरे बारे में

mathura, uttar pradesh, India
पेशे से पत्रकार और केपी ज्योतिष में अध्ययन। मोबाइल नंबर है- 09412777909 09548612647 pawannishant@yahoo.com www.live2050.com www.familypandit.com http://yameradarrlautega.blogspot.com
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