मथुरा। राधा और कृष्ण का अलौकिक प्रेम पहली बार बहस के केंद्र में आया है। लिव इन रिलेशन अदालती बहस के पहले से अस्तित्व में है। समय को कानून की दृष्टि से परिभाषित करने से समाज की अपनी धारा और बदलता वक्त बंधता भी नहीं है। सवाल यह नहीं है कि लिव इन रिलेशनशिप बदलते समय की जरुरत है या नहीं, सवाल यह है कि किस शिलालेख, साहित्य या शास्त्र में कहा गया है कि राधा-कृष्ण लिव इन रिलेशन में थे। कान्हा की नगरी में तो कहीं-कहीं कृष्ण खुद ही राधा रूप में नजर आते हैं तो कभी राधा और कृष्ण एक दिखते हैं।
बरसाना के लाडलीजी मंदिर में भगवान कृष्ण की कृष्ण के रूप में नहीं, सखी रूप में पूजा होती है। पूजा ही नहीं, उनका श्रृंगार भी सखी रूप में होता है। यहां दो अलग-अलग मूर्तियां जरूर हैं, लेकिन दोनों को सजाने-संवारने और पूजने में समानता रखी जाती है। भाव यही है कि दोनों एक ही हैं। किताबें कहती हैं कि कृष्ण ने किशोर वय पार करते-करते वृंदावन छोड़ दिया, जो उनकी रास लीलाओं के लिए ख्यात है। वह मथुरा आए और बारह साल की उम्र में कंस का संहार किया। कंस के वध की सूचना मिलने पर जरासंध मथुरा के लिए रवाना हो गया। जरासंध के आने की सूचना मिलते ही भगवान कृष्ण अपनी मुरली और मुकट यमुना किनारे छोड़कर गुजरात के लिए चले गये। उन्होंने गोपियों को समझाने के लिए उद्धव जी को भेजा। कृष्ण सबसे पहले डांगौरजी गये, जहां उनके रणछोर स्वरूप के दर्शन होते हैं।
कृष्ण को अकेले पूजने वाले भी हैं, राधा को मानने वाले भी हैं और दोनों की युगल छवि को पूजने वाले भी वैष्णव हैं। दोनों को लक्ष्मी-नारायण का रूप भी माना जाता है। कृष्ण को पूज्य मानने वाले वैष्णव उन्हें विष्णु का अवतार मानते हैं। शुरूआती पूजा की परंपरा को देखें तो दो शताब्दी ईसा पूर्व में पतंजलि का समय माना जाता है। तब वासुदेव कृष्ण के रूप में उनकी पूजा शुरू हुई, लेकिन उससे पहले उन्हें बाल कृष्ण के रूप में पूजा जाने लगा था। ग्रीक दूत मैगस्थनीज और कौटिल्य के अनुसार उन्हें सुप्रीम पावर के रूप में पूजा गया। भक्ति परम्परा में उनकी रास लीलाओं को जहां डिवाइन प्ले कहा गया है। सातवीं व नौैंवी शताब्दी से पहले दक्षिण भारत में उनकी भक्ति का प्रसार-प्रचार हुआ। बारह वीं शताब्दी में जब जयदेव का गीत-गोविंद आया तब उनकी रास लीला से लोग प्रभावित हुए और तब भी उनके अलौकिक रूप को ही पूजा गया। उत्तरी भारत में ग्यारह वीं शताब्दी में निबांकाचार्य, पंद्रहवी शताब्दी में वल्लभाचार्य और सोलह वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु ने उनके अलौकिक रूप को ही पहचान दी। और तो और वर्ष 1966 से जो भक्ति वेदांत आंदोलन पश्चिम के देशों में चल रहा है, वहां भी राधा-कृष्ण के रिश्तों को लौकिक रूप में परिभाषित करने का प्रयोग नहीं किया गया। इन देशों में लिव इन रिलेशनशिप सदियों से है।
इसी तरह परफार्मिग आर्ट्स में जो 150 ईसा पूर्व से प्रचलित हैं, उनमें भी ऐसे आख्यान या कथाएं नहीं हैं। दसवीं सदी से राधा-कृष्ण परफार्मिग आर्ट के सर्वाधिक लोकप्रिय चरित्र रहे हैं, लेकिन न तो उनकी भाव भंगिमा और न ही लोकोक्तियों में उनके शारीरिक मिलन की कोई कहानी सामने आती है। जहां तक पेटिंग्स का सवाल है तो कला के चितेरों ने अपनी कल्पना से उनके युवा रूप को ज्यादा दर्शाया है, जो काल्पनिक अधिक है। इन चित्रों में भी राधा-कृष्ण की लीलाओं को दर्शाने का प्रयास किया गया। चित्रों के माध्यम से राधा-कृष्ण को एक भी दर्शाया गया। अलावा इसके न तो ऐसी मान्यता वैष्णव और हिंदू समाज में रही है और न ही कोई साहित्य, शिलालेख, संस्कृति उनके लौकिक रूप को दर्शाती है।
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