शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

मैं हूं तुम हो और ये चांदनी....

सुहाग रात के तोहफे में आप अपनी पत्नी को क्या दे सकते हैं। कुछ भी। हर वो चीज जो पैसे से खरीदी जा सकती है, लेकिन मैंने एक ऐसा तोहफा अपनी पत्नी को दिया, जो पैसे से नहीं खरीदा जा सकता था। अभी रात के एक बजकर 47 मिनट हुए हैं। नेट पर काम करते-करते आंख दुखने लगीं तो मैं छत पर चला गया। धवल चांदनी रात शरद ऋतु की और मेरे कमरे की छत उतनी ही सद्द स्नग्धि, जितनी कि तब थी। मैं मुंडगेली से बाहर की तरफ झांका कि देखूं दिन भर फांय-फांय करने वाला और गला काटकर पैसा कमाने वाला आदमी क्या किसी नई विधि से नींद लेता है। सब निढाल पड़े थे और बेसुध थे। कल्लू जग रहा था, वह मुझे देखते ही बोला-आधी रात को जाग रहे हैं साहब। मैंने कहा-अबे तू क्यों जग रहा है। बोला-आज मेरी शादी की सालगिरह की रात है। मुझ पर ज्यादा देर तक छत पर रुका नहीं गया। कमरे में आया और डायरी खोली। जो तोहफा मैंने दिया था, आज उसे सार्वजनिक कर रहा हूं। मुझे लगता है कल्लू इस एहसास को रात भर जीएगा

दोनों खिड़की से झांक रहा है चांद

मेरे सिर के ऊपर आसमान है
मेरे पैरों तले जमीन है
शेष जो भी है इधर-उधर सब
निरर्थक है..

मेरे हाथों में तुम्हारा चेहरा है
मेरे होठों पर तुम्हारे होंठ
मेरे सीने पर तुम्हारा वक्ष है
गर्म सांस कुछ गुनगुनाना चाह रही हैं
मैं उठा हूं तुम पर
एक पुरातात्विक कृति सा
तुम परियों सी अंगड़ाई में
बहुत कुछ कहने,सुनने,जानने,मचलने
मचलकर जानने और जानकर मचलने को हो रही हो व्याकुल

इसके अलावा शेष जो भी है आगे-पीछे
लोक-परलोक समझने का है, मेरे लिए
निरर्थक है..

मेरी आंखों में सपने हैं
सपनों का घर है
घर में एक थाली दो कटोरियां हैं
जलाने के नाम पर एक बोतल किरोसिन
और स्टोव है
खाने को हरे शाक शुद्ध गेंहू की चपातियां हैं
एक बिस्तर है
दो खिड़कियां हैं
चंदा दोनों खिड़कियों से झांक सकता है
तुम हो, मैं हूं
और अगर कोई आने वाला भी है तो
वह जाने कि उसे आना है भी कि नहीं
इसके अलावा शेष जो भी सोचने का है, मेरे लिए
निरर्थक है..

मैं हूं, तुम हो
तुम हो, मैं हूं
भूखे-प्यासे
सुख हैं दुख हैं हमी हैं
यज्ञ हैं याजक हैं
कृत्य हैं कृतिया हैं हमी हैं
हमी चेतन हैं या कहें तो
हमीं नश्वर हैं
हमीं नूतन हमीं पुरातन
दर्शन हैं परिभाषाएं हैं

कहने को हमारे पास इतने शब्द हैं
जितने आसमान में सितारे
पर हमारे सितारे गर्दिश में हैं
शब्द हमने दूर धकेल दिए हैं-
अनुभूतियों के पिंड में
पिंड में हवा है हवा में योग हैं
यही जीवन है यही भोग है

शेष जो भी है-
सुंदर असुंदर, मेरे लिए
इस समय निरर्थक है..

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

आपने प्रयास बहुत अच्छा किया है पर कविता कहीं कहीं अपना प्रभाव नहीं छोड रही है टूटती हुई नजर आ रही है । कोशिश शानदार है

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मेरे बारे में

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पेशे से पत्रकार और केपी ज्योतिष में अध्ययन। मोबाइल नंबर है- 09412777909 09548612647 pawannishant@yahoo.com www.live2050.com www.familypandit.com http://yameradarrlautega.blogspot.com
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