रविवार, 19 अक्तूबर 2008

तुम्हारी उड़ान का पंख

मैं मिलूंगा
भीड़ में फीके, रंग उड़े
और रंग-बिरंगे चेहरों के बीच
पहचान वाली पगडंडियों पर

मैं जहां भी हूं, दूर तुमसे, दूर सबसे
दूर अपने को छिपा रखने के कई रोगों से
मैं जा रहा हूं पानी की शक्ल में
बुलबुला होता हुआ
हवा के आकार में बनता-बिगड़ता
पर मिलूंगा पानी से बाष्प होने के मध्य

धड़कनें गिनता हुआ मैं मिलूंगा
कुछ भी अशेष गुनगुनाता हुआ
धूप की तरह
किसी को भी उसकी पहचान कराता हुआ
जहां कहीं भी रहूंगा मैं
रहूंगा तुम्हारी उड़ान में पंख लगाता हुआ

स्मृतियों के धुंधलके में
तुम्हारी आवाज को सुनाता
फेरी वाले की जगह
गली-गली, चाहें रहूं किसी भी वेश-भाषा में
पर मिलूंगा तुम्हारे ही कारणों में।।
(1988)

2 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बहुत सधे हुए शब्दों में भाव पूर्ण कविता...बहुत सुंदर...बधाई
नीरज

अमिताभ मीत ने कहा…

बहुत बढ़िया है भाई ....

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मेरे बारे में

mathura, uttar pradesh, India
पेशे से पत्रकार और केपी ज्योतिष में अध्ययन। मोबाइल नंबर है- 09412777909 09548612647 pawannishant@yahoo.com www.live2050.com www.familypandit.com http://yameradarrlautega.blogspot.com
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